वक़्त की नब्ज़ : अंग्रेजी का हौवा |
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Sunday, 27 July 2014 10:17 |
जनसत्ता 27 जुलाई, 2014 : अफसोस की बात है कि हिंसा की नौबत आने के बाद ही हमारा ध्यान उन छात्रों की तरफ गया जो यूपीएससी के इम्तिहान में अन्याय के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे दिल्ली में कई दिनों से। ठीक कह रहे हैं ये बच्चे। अन्याय है, घोर अन्याय और सिर्फ भाषा को लेकर नहीं। पुलिस के साथ जब हिंसक झड़पें हुईं इन छात्रों की गुरुवार की रात को तो मामला संसद तक पहुंचा लेकिन कुछ सांसदों के भाषण सुनने के बाद ऐसा लगा मुझे कि वह समझे नहीं है कि समस्या कितनी गंभीर है। पहले बात करते हैं भारतीय भाषाओं के साथ अन्याय की। इस अन्याय का सबूत है वह आंकड़ा जिसके मुताबिक 2014 में 1122 सफल छात्रों में से सिर्फ 53 ही ऐसे थे जिन्होंने इम्तिहान किसी भारतीय भाषा में दिया हो। इनमें 26 थे जिन्होंने हिंदी में इम्तिहान दिया था। इस समस्या का हल ढूंढ़ना आसान है क्योंकि जो समिति अब जांच कर रही है छात्रों की शिकायतों की, उनको सी-सेट के सिलेबस में सिर्फ इतनी तब्दीली लाने की जरूरत है कि अंग्रेजी को अनिवार्य न किया जाए। समस्या यहां तक लेकिन सीमित नहीं है। छात्रों का गुस्सा जब हिंसा में बदला तो मैंने गूगल करके कुछ सीसेट इम्तिहानों के पेपर निकाले। मेरी अंग्रेजी अच्छी है, इतनी अच्छी कि अंग्रेजी में लिख कर मैंने उम्र भर पैसा कमाया है, लेकिन यकीन कीजिए कि जिस अंग्रेजी में सवाल लिखे गए थे इन पेपरों में वह मेरी समझ के बाहर थी। जिस तरीके से साधारण सवालों को पेचीदा किया गया था वह कोई अंग्रेजी का शास्त्री भी शायद समझ न पाए। मिसाल के तौर पर पेश करती हूं पर्यावरण पर एक सवाल। मुश्किल नहीं था सवाल। अगर पूछा जाता छात्रों से कि भारत की नदियों और जंगलों का क्यों इतना बुरा हाल है तो आसानी से जवाब दे पाते। लेकिन अगर उनसे पूछा जाए कि पर्यावरण का नुकसान क्या करना चाहिए उन वस्तुओं के निर्माण के लिए जो वर्तमान विकास के लिए जरूरी हैं हमारे जीवन में लाना, लेकिन जिनके निर्माण से भविष्य में ऐसा नुकसान हो सकता है प्रकृति का जो सदियों तक भुगतना पड़े तो इस पर आप क्या कहेंगे? सवाल को इस अंदाज में पूछे जाने से पर्यावरण वैज्ञानिक भी बौखला जाएं तो उन बच्चों का क्या होगा जो देहाती स्कूलों में से पढ़कर आए हैं जहां इन चीजों के बारे में पढ़ाया ही नहीं जाता है? सीसेट के सवालों को पढ़ने के बाद मुझे ऐसा लगा कि यह उन बच्चों के लिए तैयार किए गए हैं जिनके नाना या दादा आइसीएस में हुआ करते थे। यह लोग अब तो गायब हो गए हैं लेकिन किसी जमाने में दिल्ली की महफिलों में बहुत दिखते थे। एक स्काच पीने के बाद अक्सर बातें किया करते थे आक्सफोर्ड या कैंब्रिज की, चाहे वह वहां पढ़ाएं या नहीं। अंग्रेजी बिल्कुल अंग्रेजों की तरह बोला करते थे और हिंदुस्तानी भाषाएं सिर्फ इतनी बोलते थे जो किसी सेवक से सेवा लेने के लिए काम आए। इन लोगों को हम भूरे साहिब कहा करते थे। अंग्रेज राज में बेशक इनका काम अच्छा रहा हो, स्वतंत्रता के बाद बिल्कुल अच्छा नहीं साबित हुआ। इन्हीं की बदौलत हमको विरासत में मिले शासन जमाना बदल गया है और जनता अब ऐसे शासक चाहती है जो इस देश के आम नागरिकों के हित के लिए काम करें। इसीलिए तो एक चायवाले के बेटे को पूरी बहुमत से प्रधानमंत्री बना कर दिल्ली भेजा है मतदाताओं ने इस उम्मीद से कि वास्तव में परिवर्तन और विकास देश में आए। खास तौर पर शासन के तरीकों में, आम सेवाओं में। यह नहीं आ सकेंगे अगर सीसेट जैसे इम्तिहान कायम रहेंगे क्योंकि इन में सफल सिर्फ वह छात्र हो सकेंगे जो सेंट स्टीफंस जैसे अंग्रेजी कालेज में से पढ़ कर आते हैं। अक्सर यह ऐसे बच्चे होते हैं जिनके पिता और शायद दादा भी आला अधिकारी थे। इनके साथ कैसे मुकाबला कर सकते हैं अंग्रेजी में, ऐसे बच्चे जो छोटे शहरों या कस्बों में पढ़ाई करते आए हैं? लेकिन इस देश के बारे में, इस देश की समस्याएं, इस देश की सभ्यता के बारे में कहीं ज्यादा जानते हैं, अंग्रेजी चाहे उनकी कितनी भी कमजोर हो। सो समस्या गंभीर है और शायद प्रधानमंत्री मोदी के लिए पहला संगीन इम्तिहान साबित हो सकती है। वह इसलिए कि अब इन छात्रों को यह कहना कि इन सब चीजों को ठीक करने के लिए वक्त लगेगा काफी नहीं है। इनके लिए यह इम्तिहान जिंदगी का सवाल है। इनके लिए सरकारी अफसर बनाने का ऐसा सपना है जो इनको बचपन से दिखाया जाता है। तो प्रधानमंत्री को कुछ करना तो होगा इनके लिए और वह भी बहुत जल्दी। फैसला करते समय लेकिन एक चीज का ध्यान रखना पड़ेगा आपको और वह यह है कि आपको इस मामल मेें गुमराह करने की कोशिश करेंगे आपके ही अपने आला अफसर। चाहे जितने भी ईमानदार हों, ये ऐसे लोग हैं जो परिवर्तन शब्द से डरते हैं और सबसे ज्यादा उस क्षेत्रों में जहां उनका दशकों से बस चलता आ रहा है। सो सीसेट जैसे इम्तिहानों में अंग्रेजी की अहमियत इन्होंने सोच समझ कर डाली होगी। अंग्रेजी इनकी मातृभाषा है और इनके बच्चों की भी। और शायद यही वजह है कि आपने ब्रिक्स सम्मेलन में अंग्रेजी बोलने की जरूरत महसूस की। कहा गया होगा कि हिंदी से अनुवाद करने वाले नहीं मिले हैं या कुछ ऐसा ही कोई और बहाना। इनकी बातें न सुनें और मेहरबानी करके अमेरिका में हिंदी में ही अपना भाषण देने का फैसला करें। अच्छा लगेगा आपके देशवासियों को। फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta आपके विचार |