घाटे की उड़ान |
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Tuesday, 08 October 2013 10:04 |
![]() तेरह साल पहले राजग सरकार ने एअर इंडिया की चालीस फीसद हिस्सेदारी बेचने की मंशा जाहिर की थी। विडंबना यह है कि भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद को भी अजित सिंह का ताजा बयान नागवार गुजरा। उन्होंने जो कहा उसका लब्बोलुआब है कि यह बेहद संवेदनशील मसला है और यूपीए सरकार विपक्ष से राय-मशविरा किए बगैर हड़बड़ी में निजीकरण के प्रस्ताव को आगे बढ़ा रही है। सरकार विपक्ष की भी राय ले, यह अच्छी बात होगी, पर उन्हें साफ बताना चाहिए कि भाजपा इसके पक्ष में है या विरोध में? एअर इंडिया लंबे समय से लगातार घाटे की उड़ान भर रहा है। पहले का जिक्र न भी करें, केवल पिछले चार साल में इसका घाटा पैंतीस हजार करोड़ पर पहुंच गया है। बीते नौ वर्षों में करीब तीस हजार करोड़ यह सही है कि इस हालत के लिए विमानों की अनावश्यक खरीद और तुरंत उनके व्यावसायिक उपयोग की तैयारी न होने जैसे कारण भी जिम्मेवार हैं। पर एअर इंडिया का सांस्थानिक स्वरूप अपने आप में एक समस्या है। दूसरी विमान सेवाओं के बरक्स एअर इंडिया पर कर्मचारियों का भार अधिक है। फिर, नौकरशाही हावी होने से उसका संचालन पूरी पेशेवर क्षमता से नहीं हो पाता। यह हालत तब है जब कई व्यावसायिक मार्ग इसके लिए आरक्षित रहे हैं। दूसरी विमान सेवाओं की प्रतिस्पर्धा में एअर इंडिया को टिकाए रखने के लिए समय-समय पर सरकार की ओर से बचाव-पैकेज दिया जाना न तो कारोबारी मर्यादा के अनुरूप है न करदाताओं के साथ इंसाफ। वामपंथी दल करों में छूट के रूप में कॉरपोरेट क्षेत्र को दी जाने वाली रियायतों पर उचित ही यह सवाल उठाते रहे हैं कि सरकारी खजाने से उन पर मेहरबानी क्यों की जा रही है। लेकिन एअर इंडिया का घाटा पाटते रहने के लिए की जाने वाली उदारता उन्हें नहीं अखरती! यह किसी से छिपा नहीं है कि राजकोषीय घाटा बेहद चिंताजनक स्तर पर पहुंच चुका है। इसे कम करने की कवायद में सरकार को कई ऐसे कदम भी उठाने पड़ते हैं जो आम लोगों के लिए तकलीफदेह होते हैं। ऐसे में सफेद हाथी हो साबित हो चुके एअर इंडिया को निजी हाथों में सौंपने के प्रस्ताव को गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
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