जनसत्ता 19 सितंबर, 2014: भारत जैसे विशाल और विकराल समस्याओं वाले देश में मोदी सरकार से सौ दिनों में चमत्कार की अपेक्षा तो नहीं ही की जा सकती, लेकिन इसके कुछ निर्णयों की बात करें तो भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम की राज्यपाल पद पर नियुक्ति एक गलत और अदूरदर्शितापूर्ण निर्णय है। वैसे भी, संवैधानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण और गरिमापूर्ण होते हुए भी राज्यपाल का पद हमेशा से ही विवादों में रहा है और इसे सत्तारूढ़ पार्टी अपने चहेतों को तोहफे के तौर पर देती रही है। उम्रदराज हो चुके बड़े कद के नेताओं को सक्रिय राजनीति से दूर रखकर वृद्धाश्रम की जगह राजभवन भेजने की परंपरा भी रही है। सवाल यह है कि यदि न्यायपालिका के शीर्ष पदों पर विराजमान लोगों को ऐसे प्रलोभन दिये जाएंगे तो वे निष्पक्ष कैसे रहेंगे? अच्छा होता कि सदाशिवम सरकार की पेशकश को अस्वीकार करते, जो उन्होंने नहीं किया। इसी से जुड़ा अन्य निर्णय- यूपीए सरकार के नियुक्त राज्यपालों को हटाया जाना और हटने के लिए असम्मानजनक ढंग से बाध्य करना भी निंदनीय ही है। गृह सचिव का राज्यपाल को फोन करके ‘धमकाना’ संवैधानिक पद की गरिमा के सर्वथा विरुद्ध है। लेकिन सौ दिन में इस सरकार ने अनेक अच्छे निर्णय किए हैं। विदेशी बैंकों में भारतीयों के काले धन की पड़ताल के लिए उच्चस्तरीय समिति का गठन, प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत हर देशवासी को बैंक खाते और बीमे की सुविधा अच्छे फैसले हैं। गंगा सफाई के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के कामकाज पर असंतोष
जताया है, लेकिन इसके बावजूद पूर्ववर्ती सरकारों की तुलना में बेहतर काम गंगा और सार्वजनिक स्थलों की स्वच्छता के मामले में होने की उम्मीद है। नीतिगत निर्णयों में तेजी आई है और सारे मंत्रालयों को ज्यादा जवाबदेह बनाया गया है। प्रधानमंत्री कार्यालय की ताकत बढ़ना संसदीय प्रजातंत्र के लिए अच्छा है या बुरा इस पर विवाद हो सकता है, लेकिन मनमोहन सिंह जैसे असमर्थ, अनजान और लाचार दिखने वाले प्रधानमंत्री की तुलना में मोदी में एक दमदार नेता की झलक दिखती है जो देशवासियों को प्रभावित करते हैं। नेपाल, भूटान और जापान की यात्रा के दौरान उन्होंने खुद को एक कुशल राजनीतिक के तौर पर साबित किया है और अमेरिका के बजाय पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को ज्यादा महत्त्व दिया है। कमल कुमार जोशी, उत्तराखंड
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