दीपक मशाल जनसत्ता 19 सितंबर, 2014: स्वीडन में माल्मो शहर से कुछ दूरी पर ब्रिटेन के स्टोनहेंज की तरह का, लेकिन उसकी तुलना में काफी छोटा, उनसठ भारी-भरकम पत्थरों का एक अंडाकार घेरा है, जिसे स्वीडिश भाषा में औलेस्तेनर कहते हैं। यह औलेस्तेनर मुख्य रूप से नार्डिक कांस्य युग या उसके बाद के समय का कब्रें बनाने का एक तरीका माना जाता है और इसे स्टोनशिप या प्रस्तरपोत भी कहते हैं। हाल में ही माल्मो जाना हुआ, तो मन हुआ कि यह दूसरा स्टोनहेंज भी देख लिया जाए, हालांकि इनके निर्माण के प्रकार, समय और कारण तीनों अलग हैं। औलेस्तेनर पहुंचने के लिए हमें पहले माल्मो से इईस्तद नामक एक प्राचीन कस्बे तक ट्रेन से जाना और फिर वहां से बस पकड़नी थी। लेकिन किन्हीं वजहों से हम इईस्तद पहुंच कर पहली बस नहीं पकड़ सके और हमारे पास अगली बस के इंतजार के सिवाय और कोई चारा न था। हम वहां बस स्टॉप पर बैठे थे कि खरीदारी से भरा झोला लिए एक अतिवृद्ध महिला सड़क पार करते दिखीं। सड़क पार कर वे ज्यों ही फुटपाथ पर चढ़ने वाली थीं कि अचानक फिसल कर गिरने को हुर्इं। मैं नजदीक ही था, सो तुरंत उन्हें संभाल लिया। उन्होंने मेरी तरफ देखा और बात करनी शुरू कर दी। चूंकि मैं स्वीडिश भाषा से पूरी तरह अनभिज्ञ था, इसलिए सिर्फ ‘थैक्क’ यानी धन्यवाद ही समझ पाया। मैंने अंगरेजी में उनसे बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें शायद अंगरेजी समझ न आती होगी, लेकिन फिर भी वे हमारे पास बैठ कर करीब अगले चालीस मिनट तक कुछ न कुछ कहती रहीं। कभी उनकी आंखों में आंसू होते, तो कभी वे मुस्कुरा रही होतीं। बाद में जब एक भारतीय मित्र को, जो स्वीडिश भी जानता था, यह सब बताया तो उसका कहना था कि वह भी ऐसे अनुभवों से गुजर चुका है। असल में वहां ज्यादातर वरिष्ठ नागरिकों के पास बात करने तक के लिए कोई नहीं होता, इसीलिए उन्हें जो भी मिलता है उसी से थोड़ी देर बात कर लेना चाहते हैं। उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि सुनने वाले को उनकी भाषा समझ में आती है या नहीं। खासकर वे भारतीयों को संवेदनशील समझते हैं और कुछ पलों के लिए ही सही, उनमें एक सहारा ढूंढ़ लेते हैं। इसी तरह करीब छह बरस पहले जब बेलफास्ट के क्वीन्स विश्वविद्यालय के छात्र संघ ने एक खास शाम शहर के एक वृद्धाश्रम के बुजुर्गों के नाम करते हुए उन्हें विश्वविद्यालय के बार में आमंत्रित किया, तो मुझे भी वृद्धों के सुख-दुख जानने-समझने का अवसर मिला। लगा कि जितनी झुर्रियां उनके चेहरों पर दिखाई पड़ती हैं, उनसे कई गुना ज्यादा उनके दिलों पर पड़ी हैं। जब कभी उन झुर्रियों के परदे को एक तरफ सरका कर वे कुछ क्षणों के लिए अपने अतीत में झांकते हैं, तो उनसे खुशियों और तकलीफों के हिस्से बांट लेते हैं। उस शाम एक वृद्ध
पुरुष और तीन महिलाओं ने मुझे अपने पास बिठा कर भारत में वरिष्ठ नागरिकों के हालात के बारे में जानना चाहा। वैसे बहुत हद तक उन्हें पता था कि दक्षिण एशियाई देशों में उनकी उम्र के अधिकतर लोग आखिरी सांस तक अपने परिवारों के साथ ही रहते हैं और इसीलिए उनमें से एक ने कहा भी कि ‘काश हमारी परंपराएं और पारिवारिक मूल्य भी भारतीयों की तरह होते।’ बेलफास्ट में ही एक अन्य बुजुर्ग सज्जन थे, जो यूनिवर्सिटी स्ट्रीट में मेरे आवास के पास के बाजार में अक्सर मिल जाते थे। उनके बच्चे किन्हीं और शहरों में जा बसे थे और अपने अकेलेपन का साथी वे जैक रसेल टेरियर प्रजाति के ‘बॉब’ नाम के कुत्ते को बनाए हुए थे। एक दिन वे बाजार में मिले तो बातों-बातों में उन्होंने झोले में से कुछ तस्वीरें निकाल कर दिखाते हुए बताया कि ‘पिछले हफ्ते बॉब का फोटो सेशन कराया था, आज उसकी तस्वीरें लेने गया था, जरा देखिए तो कितनी बेहतरीन तस्वीरें आई हैं मेरे बॉब की।’ यह सब बताते हुए उनकी आंखों की चमक देखने लायक थी, वैसी ही जैसी अक्सर अपने नाती-पोतों की तारीफ करते हुए भारतीय दादा-नानाओं की आंखों में होती है। ब्रिटेन और स्वीडन जैसा हाल फ्रांस, स्पेन और अन्य यूरोपीय देशों में भी मिल जाता है। भले वहां की सरकारें वरिष्ठ नागरिकों को बस-ट्रेन में मुफ्त सफर करने, संग्रहालयों, पर्यटन स्थलों में मुफ्त या रियायती दर पर घूमने की सुविधाएं देती हों, मगर इनका अकेलापन दूर करने के मामले में बहुत पीछे हैं। भारतीयों की तुलना में जल्दी आत्मनिर्भर हो जाने और अंतिम क्षण तक आत्मनिर्भर बने रहने वाले ये लोग अधिकतर खुशहाली का जीवन बिताते हैं, लेकिन जीवन के आखिरी वक्त इनके मन में कहीं न कहीं भारत में न जन्मने की कशिश भी उभरती है। अब अपने यहां वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या, बुजुर्गों के साथ होने वाले अपराधों में बढ़ोतरी और उनकी बदहाली के समाचार पढ़ कर डर पैदा होता है कि विकसित देशों की तरह भौतिक सुविधाएं जुटाने के प्रयासों के बीच कहीं हम भी अपने पारिवारिक और जीवन मूल्यों को न बिसरा दें।
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