Wednesday, 17 September 2014 09:25 |

विवेक सक्सेना नई दिल्ली। बड़े नेताओं का अति आत्मविश्वास और दंभ भाजपा को ले डूबा। उपचुनाव के नतीजों ने पार्टी नेताओं की बोलती बंद कर दी। न नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता रामबाण साबित हुई और न सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का कार्ड काम आया। गोरखपुर के महंत आदित्यनाथ को आगे कर पार्टी ने उत्तर प्रदेश की 11 विधानसभा और एक लोकसभा सीट को लव जेहाद के नाम पर जीतने का दांव खेला था पर मतदाताओं ने आठ जगह उसके उम्मीदवारों को हरा दिया। बसपा के उपचुनाव में भाग न लेने का फैसला भी उसके लिए मददगार साबित नहीं हो पाया। नतीजों के बाद कुछ नहीं सूझा तो दबी जुबान से पार्टी ने प्रतिक्रिया जताई कि उपचुनाव में मतदाताओं ने स्थानीय मुद्दों के आधार पर वोट दिया पर राजस्थान और गुजरात में उनका यह तर्क क्यों नहीं चल पाया। नरेंद्र मोदी के अपने सूबे और विकास के भाजपाई मॉडल गुजरात तक में नौ में से तीन सीटें पार्टी ने गंवा दी। क्या इसका मतलब यह है कि मतदाताओं ने मोदी जैसी अहमियत आनंदी बेन पटेल को देना गवारा नहीं किया। राजस्थान के नतीजे तो पार्टी के मुंह पर तमाचा हैं। चारों सीटें भाजपा की थीं। इनमें से तीन कांग्रेस ने उससे छीन ली। इससे साफ हो गया कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का राज करने का रवैया लोगों ने पसंद नहीं किया। राजस्थान के नतीजे कांग्रेस को संजीवनी दे सकते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश पर पार्टी क्या कहेगी? अब तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही अपने गुजरात राज्य को छोड़ इस सूबे को कर्मस्थली बना रखा है। लोकसभा में 80 में से 73 सीटें पार्टी ने मई में ही तो जीतीं थीं। मगर मोदी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में आने वाली रोहनिया सीट भी पार्टी बचा नहीं पाई। बेशक यह सीट उसकी सहयोगी अपना दल की थी जो अनुप्रिया पटेल के लोकसभा में आ जाने के कारण खाली हुई थी। अपना दल की अध्यक्ष अनुप्रिया पटेल की मां और पार्टी के संस्थापक सोनेलाल पटेल की पत्नी इस उपचुनाव में गठबंधन की उम्मीदवार थी। पार्टी
नेता आदित्यनाथ और सूबेदार लक्ष्मीकांत वाजपेयी इस सीट को लेकर ज्यादा ही चौकस थे। उन्हें डर सता रहा था कि यहां हारे तो सवाल मोदी की लोकप्रियता पर उठेंगे। लेकिन सपा ने यह डर सही साबित कर दिखाया।उत्तर प्रदेश में उपचुनाव के नतीजों से अखिलेश यादव सरकार का हौसला बढ़ेगा। उपचुनाव वाली सारी विधान सभा सीटें 2012 मे विपरीत सियासी हवा के बावजूद भाजपा नें जीती थीं। इन 11 सीटों में से आठ को गंवा देने का संकेत साफ है कि अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा सूबे में सपा का विकल्प बनने का सपना देखना छोड़ दे। हार का एक बड़ा कारण बेशक भितरघात भी रहा। पिछले विजेताओं की राय की अनदेखी कर अमित शाह ने मोदी फार्मूले से उम्मीदवार तय किए थे। परिवारवाद और भाई भतीजावाद के दौर के खात्मे का दावा किया था पर यह फार्मूला पिट गया। राजस्थान में भी नुकसान की एक वजह यह फार्मूला भी माना जा रहा है । मैनपुरी लोकसभा सीट सपा ने उपचुनाव में कम मतदान के बावजूद लगभग उतने ही अंतर से जीत ली, जितने अंतर से मई में मुलायम सिंह यादव ने जीती थी। भाजपा का उम्मीदवार मुलायम के युवा पौत्र के मुकाबले बौना साबित हुआ। एक तरफ परंपरागत असर वाले राज्यों में पार्टी को घाटा हुआ है, तो दूसरी तरफ पूर्वी राज्यों में पैठ बढ़ने पर पार्टी संतोष कर सकती है। लोकसभा में पश्चिम बंगाल में दो सीटें जीतने वाली पार्टी का अब विधानसभा में भी 15 साल बाद उपचुनाव की बदौलत खाता खुल गया है। उसने माकपा से एक सीट झटक ली। इसी तरह एक सीट पर उसे असम में भी कामयाबी मिली है लेकिन बिहार में पिछले महीने ही लालू-नीतीश और कांग्रेस के गठबंधन के हाथों मात खाने पर भी पार्टी का न संभलना साबित करता है कि अभी तक उसका नेतृत्व मोदी की लहर के तिलिस्म से बाहर नहीं आ पाया है।
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