कुमार ऋषिराज जनसत्ता 16 सितंबर, 2014: भारत में अब भी उच्च प्रशासनिक अधिकारियों के लिए ‘नौकरशाह’ शब्द का इस्तेमाल होता है, लेकिन ऐसा करते हुए हम यह भूल जाते हैं कि इस शब्द की वास्तविकता क्या है? यह शब्द शाह के नौकर के लिए इस्तेमाल होता था, यानी वह वर्ग जो राजतंत्र के दौरान राजा की इच्छाओं को प्रजा पर आरोपित करता था। यह एक आभिजात वर्ग होता था और इनकी मानसिकता भी अभिजात होती थी। नौकरशाहों को लोकसेवक बनाने की जरूरत थी, जो आज भी है। उन्हें संवेदनशील, जवाबदेह और अभिजातवृत्ति से दूर ले जाने की जिम्मेदारी संघ लोक सेवा आयोग को सौंपी गई, लेकिन तस्वीर में कोई बदलाव नहीं आया। सन 2011 में कुछ ऐसे परिवर्तन हुए, जिनके कारण आयोग को कठघरे में खड़ा किया जाने लगा है। यह विवाद भाषा को लेकर है। लेकिन इसका एक अन्य पहलू है शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच की दूरी। आजादी के बाद से ही ‘भारत’ और ‘इंडिया’ के बीच एक खाई बनी रही है। आज भी ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में भारत की एक बहुत बड़ी जनसंख्या रहती है। इनकी शिक्षा वर्नाकुलर, यानी उनकी मातृभाषा में ही होती है। यह उचित भी है। शोधों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि प्रारंभिक शिक्षा अगर मातृभाषा में हो तो इससे बच्चों को ज्यादा लाभ पहुंचता है। इस परिवेश के बच्चों को भी प्रशासनिक अधिकारी बनने का उतना ही हक है, जितना एक शहरी क्षेत्र के बच्चे को। 2011 में परीक्षा पद्धति में हुए बदलाव के अनुसार सीसैट लाया गया है। माना जाता है कि इसे इस तरह तैयार किया गया कि अधिकारी को कार्यक्षेत्र में जाने के बाद जिस तरह की समस्याओं और परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है, इससे उसकी जांच हो सके। सिविल सेवाओं में निर्णय की संपूर्ण प्रक्रिया ‘नोटिंग’ और ‘ड्राफ्टिंग’ के माध्यम से होती है और इसके लिए भाषा पर सूक्ष्म पकड़ की जरूरत होती है। इसीलिए बोधगम्यता के प्रश्न पूछे जाने लगे। सिविल सेवक को जटिल परिस्थितियों को समझना और
आपस में जोड़ कर निर्णय लेना पड़ता है। इसके लिए उच्च तार्किक क्षमता की जरूरत होती है और इसकी जांच के लिए तर्कशक्ति के प्रश्न जोड़े गए। यहां तक तो ठीक था, लेकिन अंगरेजी के भी अनिवार्य प्रश्न जोड़ा जाना ग्रामीण-कस्बाई पृष्ठभूमि के बच्चों के लिए कठिनाई बन गया। इसके अलावा बोधगम्यता के प्रश्नों को अंगरेजी में बनाया जाता है और उसका काफी मशीनीकृत अनुवाद अन्य भाषाओं में किया जाता है। इसलिए विरोध अंगरेजी के खिलाफ नहीं, बल्कि मानसिकता के खिलाफ है, क्योंकि यह परीक्षा परोक्ष रूप से अंगरेजी अच्छी तरह से समझने वालों के अनुकूल हो जाती है और भारतीय जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग प्रारंभिक परीक्षा में ही विफल हो जाता है। इसके लिए शहरी क्षेत्र के सफल बच्चे भारत की अधिकतर समस्याओं से परिचित नहीं होते, जो उनके कार्य का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। दरअसल, वे समस्याओं से खुद को जोड़ नहीं पाते, क्योंकि ऐसे अधिकतर लोगों के भीतर अभिजात वृत्ति बनी रहती है। अधिकतर शहरी बच्चों में वंचितों के प्रति करुणा का भाव और सहिष्णुता का अभाव होता है, क्योंकि उन्होंने वैसा जीवन नहीं जीया होता है। इसलिए नई परीक्षा पद्धति में बदलाव की जरूरत है, ताकि भारतीय लोकतंत्र अपने वास्तविक मूल्य को प्राप्त कर सके!
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