अनंत विजय जनसत्ता 16 सितंबर, 2014: कुछ दिनों पहले इतिहासकार बिपिन चंद्र का निधन हो गया। तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में दीक्षित होकर भारतीय जनता पार्टी में पहुंचे राम माधव ने उनके निधन पर शोक जताते हुए ट्वीट किया कि बिपिन चंद्र का इतिहास लेखन में अप्रतिम योगदान है। इस पर संघ मामलों के जानकार होने का दावा करने वाले राकेश सिन्हा ने आपत्ति जताई और कहा कि वे राम माधव से सहमत नहीं हैं। मैंने राकेश सिन्हा के ट्वीट पर हस्तक्षेप करते हुए लिखा कि आपको असहमत होने का पूरा अधिकार है, ठीक उसी तरह राम माधव को अपनी राय व्यक्त करने का। इस पर राकेश ने मुझे ट्वीट पर ही जवाब दिया कि आप अपने मिजाज में संघ-विरोधी हैं, लिहाजा संघ के बारे में अपमानजनक बात कहने वाले आपको प्रिय लगते हैं। बातें राम माधव और उनकी बिपिन चंद्र को श्रद्धांजिल पर हो रही थीं। अब अगर राम माधव संघ के बारे में अपमानजनक बातें कहते हैं और इसलिए मैंने उनका समर्थन किया तो फिर कुछ कहना व्यर्थ है। दूसरी बात यह कि बिपिन चंद्र ने जो विपुल इतिहास लेखन किया उसके लिए उन्हें कम से कम राकेश सिन्हा के प्रमाण-पत्र की आवश्यकता नहीं है। अब एक और प्रसंग। हिंदी के एक वरिष्ठ आलोचक सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खासे सक्रिय हैं। वामपंथी विचारधारा की शव-साधना में तल्लीन रहते हैं। फेसबुक और अन्य जगहों पर वे मुझे संघी घोषित कर चुके हैं और गाहे-बगाहे राष्ट्रवादी पत्रकार कह कर चुटकी लेते रहते हैं। उनका दर्द यह है कि मैं वामपंथ में व्याप्त कमियों और खामियों पर लगातार क्यों लिखता हूं। उनका दुराग्रह होता है कि मोदी और संघ के बारे में उसी तीव्रता से क्यों नहीं लिखता, जिसके आधार पर वामपंथ और वामपंथियों को कठघरे में खड़ा करता हूं। लिहाजा वे फेसबुक पर कई बार चुनौती दे चुके हैं कि मैं नरेंद्र मोदी या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचना करूं। इसका एक तीसरा कोण भी है। एक समूह संपादक ने एक बार अपने संपादकीय पृष्ठ प्रभारी से पूछा था कि अनंत विजय क्यों राहुल गांधी के खिलाफ लिखते रहते हैं। सवाल एक सिन्हा, आलोचक या समूह संपादक का नहीं, उस प्रवृत्ति का है, जो अपने वैचारिक विरोधियों को किसी खास रंग में रंग कर छोटा दिखाने की कोशिश करते हैं। दरअसल, यह प्रवृत्ति बौद्धिक दिवालियापन से उपजती है। ऊपर के वाकयों में एक साझा सूत्र है, वह यह कि किसी विचारधारा, दल या उसके नेताओं, नीतियों पर अब बौद्धिक तर्कों के जरिए विमर्श की गुंजाइश नहीं रही। बौद्धिक होने का दावा करने वाले लोग भी अब विरोधियों की ब्रांडिंग कर देने पर अपनी सारी उर्जा और तर्कशक्ति खर्च करने लगे हैं। दरअसल, इस प्रवृत्ति का विकास नब्बे के दशक में प्रारंभ हुआ। सोवियत रूस के विखंडन और चीन में विचारधारा के नाम पर अधिनायकवादी कदमों
पर कुछ लेखकों और विद्वानों ने सवाल खड़े करने शुरू कर दिए। इस तरह हमारे देश के वामपंथियों और उनकी करतूतों पर भी सवाल खड़े होने लगे। हमारे वामपंथी विद्वान मित्र उन सवालों से मुठभेड़ के बजाय सवाल करने वालों को संघी करार देकर, उनकी हंसी उड़ा कर अपमानित करने लगे। सवाल फिर भी मुंह बाए खड़े रहे। कालांतर में संघ की वकालत करने वाले स्वयंभू विद्वानों ने वामपंथियों की इस तकनीक या तरकीब का अनुसरण शुरू कर दिया। फिर वही हुआ। एक-दूसरे से नफरत की हद तक वैचारिक मतभेद रखने वाले अपने-अपने विरोधियों को परास्त करने के लिए एक ही वैचारिक औजार का इस्तेमाल करने लगे। मेरे मन में बहुधा यह सवाल उठता है कि क्या एक पत्रकार को इस या उस विचारधारा के साथ खड़ा होना चाहिए। क्या उसे बगैर वस्तुनिष्ठ हुए अपने तर्कों में विचारधारा विशेष का सहारा लेना चाहिए। क्या यह उचित है कि वह दल विशेष का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्तुतिगान करे या फिर खबरों को इस तरह मोड़ दे कि किसी दल या नेता विशेष को फायदा पहुंचे। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब पत्रकारों ने ऐसा किया। इस सच को स्वीकार करने का साहस वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने दिखाया है। अपनी किताब ‘एक जिंदगी काफी नहीं’ में उन्होंने स्वीकार किया है कि यूएनआइ की नौकरी में रहते हुए वे लालबहादुर शास्त्री को सलाह देते थे। इसके अलावा उन्होंने माना कि यूएनआइ की टिकर में उन्होंने मोरारजी देसाई के खिलाफ एक खबर लगा दी, जिसका फायदा लालबहादुर शास्त्री को हुआ। पर मेरा मानना है कि पत्रकार को अपने लेखन में ईमानदार होना चाहिए। वहां किसी भी तरह की बेईमानी पूरे पेशे को संदिग्ध बनाती है। पत्रकारों की आत्मा हमेशा सत्य के पक्ष में झुकी होनी चाहिए। किसी और की तरफ झुकाव उनकी लेखनी को संदिग्ध बनाता है। अगर बगैर किसी पक्ष में झुके लेखन होता रहा तो तय मानिए कि हर पक्ष में आपको किसी और पक्ष का दिखाने या साबित करने की होड़ लगी रहेगी। पत्रकार की सफलता इसी में है।
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