सय्यद मुबीन ज़ेहरा
जनसत्ता 14 सितंबर, 2014: भारत को आत्महत्या की राजधानी का खिताब मिला है। यह हमारे लिए गर्व की नहीं, शर्म की बात है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में सबसे अधिक लोग भारत में आत्महत्या करते हैं। हर चालीस सेकेंड में दुनिया में कोई न कोई व्यक्ति खुद को मौत के हवाले कर देता है और आत्महत्या करने वाले हर तीन में से एक व्यक्ति भारत का होता है। यानी हर दो मिनट में एक भारतीय आत्महत्या कर लेता है। रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण-पूर्व एशिया में 2012 में सबसे अधिक आत्महत्या की घटनाएं भारत में हुर्इं। दुनिया में आत्महत्या से हुई आठ लाख चार हजार मृत्यु में से दो लाख अट्ठावन हजार पचहत्तर मौतें भारत में हुर्इं। पुरुषों को बहुत बहादुर और हिम्मती कहा जाता है, लेकिन चौंकाने वाली बात है कि भारत में होने वाली आत्महत्या की घटनाओं में सबसे अधिक संख्या पुरुषों की है। एक लाख अट््ठावन हजार अट्ठानबे पुरुषों ने इस अवधि में खुदकुशी की, जबकि महिलाओं की संख्या एक लाख से तेईस कम है। पर महिलाओं की आत्महत्या भी हमारे समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। दक्षिण-पूर्व एशिया में खुदकुशी के लिए लोग ज्यादातर कीटनाशकों का उपयोग करते हैं। श्रीलंका में कीटनाशकों की उपलब्धता मुश्किल बनाने के बाद वहां आत्महत्या की घटनाओं में कमी आई है। क्या इस पर रोक लगा कर हमारे यहां भी आत्महत्या के मामलों को कम किया जा सकता है? दरअसल, हमारे यहां आत्महत्या के अधिकतर मामलों में घरेलू झगड़े बड़ी वजह बनते हैं। यहां तेजाब हो या न हो, अगर घर के लोग ही जीवन में तेजाब घोलने पर उतारू हो जाएं और किसी की भावनाओं की कद्र न करें, कोई पूछने वाला तक न हो, तो संभव है कि आदमी दहशत और निराशा में ऐसे पाप को अपना ले, जिसकी हर धर्म में निंदा की गई है। खासकर महिलाओं के मामले में यही देखा गया है। हमारे समाज में महिलाओं के जीवन को कष्टों से भर देने की प्रवृत्ति आम है। दिल्ली में, जो कि देश की राजधानी है, हर दिन बलात्कार की चार वारदातें होती हैं। अधिकतर महिलाएं बलात्कार की मानसिक पीड़ा के बाद अपने जीवन का अंत कर लेती हैं, क्योंकि वे अपने साथ हुई किसी ऐसी हरकत के बाद हर पल खुद को मरता देखती हैं। समाज भी ऐसी महिलाओं की मुश्किलों को मानसिक और सामाजिक रूप से दूर करने में विफल रहता है। होता यह है कि ऐसे हालात में दोषी को समाज सिर आंखों पर बिठाता है। ऐसी हरकतें समाज की एक ऐसी छवि पेश करती हैं, जो मर चुका है और जिसमें बलात्कार की शिकार महिला को ही निशाने पर रख लिया जाता है। ऐसे में यह आशंका रहती है कि बलात्कार की शिकार महिला अपने को मौत के हवाले न कर दे। उसकी ऐसी मौत समाज की ही मौत कही जाएगी। पिछले दिनों बिहार के दरभंगा में एक पच्चीस वर्षीय महिला को पुलिस ने बचाया। दहेज न ला पाने के कारण उसे ससुराल वालों ने तीन साल से शौचालय में बंद कर रखा था। अपनी बेटी से मिलने के सभी प्रयास विफल हो जाने के बाद उसके माता-पिता ने शिकायत की तब पुलिस ने उसे नरक से मुक्ति दिलाई। तीन साल तक बचा-खुचा खाकर शौचालय की अंधेरी दुनिया में बंद रहने वाली यह महिला बाहर निकल कर धूप में आंखें नहीं खोल पा रही थी। जब वह बाहर निकली तो उसकी बेटी भी उसे नहीं पहचान पाई। ऐसा जीवन अगर हमारे समाज में किसी महिला को दिया जाए, तो क्या वह जीने से अधिक मरने की चाह नहीं करेगी। जब अपने ही जान के दुश्मन बन जाएं और हर घड़ी यातना में बीत रही हो, तो आत्महत्या को रोकने के सभी तरीके विफल होते नजर आते हैं। समाज को मिल कर इसके विरुद्ध लड़ना होगा। यह कैसा समाज है कि जहां पड़ोसी तक उस महिला की सहायता नहीं कर पाए। जब उसके माता-पिता ने कई बार मिलना चाहा होगा तब समाज को तो बीच में पड़ कर उनकी मुलाकात बेटी से करानी चाहिए थी। पर शायद यह आज का कड़वा सच है कि जब किसी पर अत्याचार होता है, तो पूरे समाज
का मौन समर्थन अत्याचारी के साथ होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की जिनेवा में जारी इस रिपोर्ट के अनुसार आत्महत्या से मरने वालों में पंद्रह वर्ष से उनतीस वर्ष के युवा अधिक होते हैं। यह वह अवस्था है, जिसमें युवाओं में उत्साह का संचार होना चाहिए। पहाड़ों का सीना चीर देने की हिम्मत होनी चाहिए। तूफानों को मोड़ देने की भावना दिखनी चाहिए। जान की बाजी लगाने की तैयारी दिखाई देनी चाहिए, मगर अफसोस कि युवा पीढ़ी न जाने क्यों हालात से इतना घबरा जाती है कि उसे जीवन से टक्कर लेना मुश्किल और मौत को गले लगाना आसान नजर आता है। अगर हमारे समाज में युवा ऐसे सोच के साथ परवरिश पा रहे हैं, तो फिर समाज का भविष्य अंधेरे में है। अगर इस समय कुछ नहीं किया गया तो हमें तैयार रहना चाहिए एक डरपोक और कमजोर समाज के लिए, जहां विरोध की हल्की-सी आहट हमारे युवकों को चूहों की तरह अपने बिलों में घुसा देगी। वह घबरा कर किसी भी गलत दिशा में निकल सकते हैं। वह चाहे खुद को मार डालना ही क्यों न हो। इसे काबू में करने की जरूरत है। अगर हमें समाज से आत्महत्या की प्रवृत्ति को दूर करना है, तो हमें अपने समाज में प्रवेश कर चुकी बुराइयों को दूर करना होगा। बाजार के हवाले हो चुके इस जीवन में हम एक-दूसरे के कपड़े की अधिक सफेदी तक से बेचैन हो जाते हैं। यह सोच हमें आगे चल कर कुएं में ले जाएगी। जिस प्रकार के एक बने-बनाए सांचे में ढले माता-पिता अब तैयार हो रहे हैं, वे एक ऐसी दुनिया में जीते हैं, जहां इंसान की कद्र केवल धन-संपत्ति से होती है। आपकी योग्यता आपकी लंबी गाड़ी पर निर्भर करती है। आप किस ब्रांड के कपड़े पहनते हैं, कैसे घर में रहते हैं, कौन-सा मोबाइल उपयोग करते हैं और साल में कितनी बार कहां-कहां घूमने जाते हैं, यह सब अगर सफलता की दलील होने लगे तो आप समझ सकते हैं कि आज का व्यक्ति कैसे झूठी दुनिया में जी रहा है। इसके अलावा इंसान की इंसान से दूरी, समाज में ऊंच-नीच, जात-पांत, शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ सबको बराबर न मिलना भी किसी व्यक्ति के आत्मविश्वास को कमजोर कर सकता है। हमारे देश में बुढ़ापे में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, अपनों से दूरी या महंगाई के कारण भी कई बुजुर्ग आत्महत्या का रास्ता अपना लेते हैं। आत्महत्या की घटनाएं किसी भी समाज की कमजोरी को दर्शाती हैं। साबित करती हैं कि लोग एक-दूसरे के साथ नहीं खड़े हैं, जरूरत पड़ने पर मदद के बजाय दूसरों का मजाक उड़ाते हैं। इसलिए लोगों का अपनी परेशानी को लेकर परस्पर संवाद नहीं हो पाता। हमें आत्महत्या की घटनाओं को रोकने के लिए ऐसे सोच से बचना होगा। सरकार को इस दिशा में काम कर रहे संगठनों के साथ बेहतर तालमेल बनाना होगा। समाज को एक-दूसरे से अधिक बातचीत करनी होगी। एक-दूसरे को सुनना भी होगा और निराशा के शिकार लोगों का हौसला भी बढ़ाना होगा। मीडिया को भी इसमें बड़ी भूमिका निभानी होगी। धार्मिक नेताओं को भी आत्महत्या जैसे पाप से लोगों को बचाने का वचन लेना होगा, ताकि लोग आत्मघाती न बन कर उच्च मनोबल और नैतिक बल से भर सकें। आइए, कोशिश करें कि हमारा देश आत्महत्या की राजधानी के पदक से मुक्ति पा सके। इसके लिए सरकार ही नहीं, हम सब यानी पूरे समाज को एक-दूसरे का समर्थन करना होगा और जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे की मदद करनी होगी।
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