अशोक वाजपेयी
जनसत्ता 14 सितंबर, 2014: अजमेर को शिक्षा, धर्म, पुरातत्त्व आदि से जोड़ा जाता रहा है। पर उसे एक साहित्य केंद्र के रूप में पहले जाना-समझा न था। दो-एक बार वहां कुछ लेखक बंधुओं के आग्रह पर गया था। वहां साहित्य के श्रोता अच्छी संख्या में जुड़े भी। पर बाद में उनकी लगातार सक्रियता का कोई संकेत नहीं मिला। इसलिए जब रासबिहारी गौड़ और उनकी मित्रमंडली ने मिल कर वहां अजमेर साहित्य समारोह, जिसे पता नहीं उन्होंने किस दबाव में लिटरेचर फेस्टिवल कहा, करने का निर्णय किया तो प्रीतिकर आश्चर्य हुआ। आश्चर्य के कई कारण बने: पहला यह कि भारत में इन दिनों होने वाले अन्य साहित्य समारोहों से अलग यह पूरी तरह से हिंदी का, जिसमें उर्दू भी शामिल है, आयोजन है और उम्मीद करनी चाहिए कि अंगरेजी के आतंक और प्रलोभन से मुक्त, हिंदी का ही रहेगा। दूसरा, उसमें बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं शामिल हुए और अधिकतर प्रश्न उन्होंने ही पूछे। तीसरा, इस समारोह में प्राय: कोई राजनेता नहीं आया, जिसने इस धारणा की पुष्टि ही की कि इन दिनों आप किसी राजनेता की साहित्य में रुचि होने का संदेह नहीं कर सकते। चौथा, अजमेर के हिंदी मीडिया ने इस आयोजन को पहले पृष्ठ पर जगह देने का काम किया। पांचवां, आयोजन के लिए राशि कॉरपोरेट जगत से नहीं, कुछ मित्रों ने मिल कर अपने से जुटाई। छठवां, सभी सत्र ठीक समय से शुरू हुए, भले कई बार अपनी रौ में निर्धारित अवधि से कुछ लंबे चलते रहे। सातवां, साहित्य के अलावा मीडिया, राजनीति, अहिंसक आंदोलनों के नैतिक मूल्य, सच बोलने के खतरों आदि पर बातचीत होती रही। ऐसे पहले आयोजन में ही ये पक्ष प्रगट हुए यह भूरि-भूरि प्रशंसा की बात है। बनारस, लखनऊ, पटना, चंडीगढ़, जयपुर आदि के साहित्य समारोहों में अंगरेजी का वर्चस्व रहता है। मृदुला गर्ग, शीन काफ़ निज़ाम, पुरुषोत्तम अग्रवाल, उर्मिलेश आदि ने समारोह में हिस्सा लिया और समुचित मुखरता, विनोद-भाव और जिम्मेदारी से विभिन्न विषयों पर अपने विचार रखे; श्रोताओं की जिज्ञासाओं और प्रश्नों के उत्तर दिए और आमतौर पर यह अहसास कराया कि हिंदी में दृष्टियों, शैलियों, विचारों की सशक्त और ऊर्जस्वित बहुलता है और उसमें निजी बेचैनी, सामाजिक सरोकारों और गहरी चिंता सबके लिए जगह है। बावजूद इसके कि अनेक हिंदी लेखक बेवजह अंगरेजी शब्दों का इस्तेमाल करते रहते हैं, साफ-सुथरी, पर खुली हुई हिंदी सक्रिय है: उसमें सूक्ष्म और जटिल बातों को सुघरता से रखा जा सकता है और उनका सफल संप्रेषण होता है। चूंकि अपने पहले आयोजन की सफलता से उत्साहित आयोजक इसे एक वार्षिक शृंखला बनाने का मंसूबा कर चुके हैं, यह सुझाना समीचीन है कि वे इसमें हिंदी अंचल की कलाओं को भी शामिल कर इसका वितान विस्तृत करें, युवा लेखकों आदि की भागीदारी बढ़ाएं, आमंत्रित लेखकों आदि की पुस्तकों के प्रदर्शन और बिक्री का आयोजन-स्थल पर ही प्रबंध करें और इसे हिंदी का ही साहित्य समारोह बनाए रखें।
हिंदी के संकोच एक बड़ी भाषा होने के नाते हिंदी कुछ संकोच और संयम बरते यह स्वाभाविक और जरूरी है। अपने बड़प्पन का बोझ उतार कर ही उसे दूसरी भारतीय भाषाओं से संवाद और सहकार करना चाहिए। इसमें संदेह नहीं है कि हिंदी में पिछले लगभग पचहत्तर बरसों में श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई है, जिसे किसी भी भारतीय भाषा के श्रेष्ठ साहित्य के समकक्ष रखा जा सकता है। यह भी सही है कि अगर आप मोटे तौर पर जानना चाहें कि इस समय भारतीय साहित्य में क्या लिखा जा रहा है, तो आप हिंदी अनुवाद के माध्यम से यह बखूबी जान सकते हैं, भारतीय अंगरेजी में तो यह कतई संभव नहीं है- अंगरेजी के मुकाबले हिंदी भारत में अधिक आतिथेय भाषा है। हिंदी को एक बड़ा संकोच इस कारण होना चाहिए कि उसमें सर्जनात्मक साहित्य के साथ-साथ उसी कोटि का बौद्धिक साहित्य नहीं है: यह विचित्र है कि हिंदी अधिकतर विचार आलोचना में करती है, पर इतिहास, संस्कृति, आर्थिकी, विज्ञान, राजनीतिशास्त्र, धर्म, मनोविज्ञान आदि पर उसमें उदग्र विचार की कोई परंपरा नहीं बन पाई है। एक समाजशास्त्री मित्र बताते हैं कि समाज विज्ञान के क्षेत्र में इधर कुछ सक्रियता और विस्तार आए हैं। यह अच्छी बात है, पर कुल मिला कर, हिंदी बुद्धि और विचार में विपन्न ही है: हमारा साहित्य भाषा की इस भयावह कमी की क्षतिपूर्ति नहीं कर सकता। इसका ही परिणाम है कि हिंदी में कोई सोचता-विचारता-बहसता-झगड़ता बौद्धिक जगत नहीं है। कई बार आश्चर्य होता है कि ऐसे जगत की अनुपस्थिति के बावजूद इतना उच्च कोटि का साहित्य कैसे संभव हुआ है। यह भी हो सकता है कि यह खामखयाली हो और इस आत्मविश्वास को, कि हमारी साहित्यिक उपलब्धि श्रेष्ठ है संदेह और प्रश्नांकन के घेरे में आना चाहिए। शायद यह तर्क दिया जा सकता है कि हमारे श्रेष्ठ लोगों के पास लगभग स्वार्जित बुद्धि रही
है, पर औसत लेखक आदि ऐसा स्वार्जन अपने आसपास के माहौल और पाठ्यक्रमों आदि में बौद्धिकता के अभाव और कई बार अवमूल्यन की वजह से नहीं कर पाते हैं। इसका एक दुष्परिणाम वह बड़बोलापन है, जो कि इधर के युवा आलोचकों में बढ़ता गया है। ऐसे अवसर, सार्वजनिक और साहित्यिक, आए हैं जिनमें अनर्जित और अपरीक्षित आत्मविश्वास से युवा आलोचक पिछले पचास वर्षों में किसी के श्रेष्ठ होने का दावा करते हैं और बिना कोई आलोचनात्मक आधार स्पष्ट किए या विश्लेषण के एक बनी-बनाई बासी सूची एक बार फिर पेश कर देते हैं। यह बुद्धि से अपसरण है: अपनी बार-बार घोषित और असंदिग्ध और प्रश्नातीत विचारदृष्टि से अलग सोचने वाले लेखकों या कृतियों को हिसाब ही में नहीं लेते! यह बौद्धिक संकीर्णता और वफादारी का ही नमूना होता है, आलोचना-कर्म नहीं। सबसे बड़ा कवि कौन है, सबसे बड़ा उपन्यास या कृति कौन है आदि प्रश्न पत्रकारिता के प्रश्न तो हो सकते हैं, आलोचना के नहीं। जो आलोचक यह न जाने-माने कि उसकी दृष्टि से अलग या उसके विरोधी भी श्रेष्ठ और विचारणीय लेखक या कृति हो सकते हैं उसे आलोचक मानने में हमें संकोच करना चाहिए। हिंदी के संकोच का एक और कारण उसका राजभाषायी रूप है, जो अपनी बौद्धिक दयनीयता, समझ की हास्यास्पदता और राज्य-पोषित होने के कारण खर्चीलेपन से जो दुनिया बनाता है उसका हिंदी समाज से लगभग कुछ लेना-देना नहीं है, हालांकि वह इसी समाज को संबोधित है। यह हिंदी की बौद्धिक असमर्थता का एक और उदाहरण है कि हम साठ बरसों बाद भी ऐसी राजभाषा नहीं बना सके, जो राजकाज को उसमें समझदारी, जिम्मेदारी, सूक्ष्मता और संवेदनशीलता के साथ चला सकें, जिसे साधारण लोग समझ-बूझ सकें। एक और संकोच हिंदी का स्वयं अपनी बोलियों से किया दुर्व्यवहार है। संसार में शायद ही किसी और भाषा में छियालीस बोलियां होंगी, जितनी कि हिंदी में जनगणना आयुक्त की ताजा रपट के अनुसार हैं। खड़ी बोली ने, जिसने मानक हिंदी होने का अवसर पा लिया, बाकी बोलियों से संवाद और सहकार को छेंक दिया। उन्हें दोयम दर्जे का अपने व्यवहार से करार दिया। खड़ी बोली का श्रेष्ठ साहित्य ब्रज, अवधी, भोजपुरी आदि बोलियों के श्रेष्ठ साहित्य की तुलना में कमतर ही बैठेगा। इस मामले में हिंदी को अपनी बोलियों के प्रति अधिक खुला, ग्रहणशील और विनयी होने की जरूरत है। हिंदी अंचल भारत का सबसे अधिक सांप्रदायिकता-ग्रस्त, धर्मांध, जातिवाद पीड़ित, अवसरवादी और हिंसक राजनीति, पिछड़ी आर्थिकी, दलित-अल्पसंख्यकों-स्त्रियों पर लगातार अत्याचार, ध्वस्त शिक्षा व्यवस्था, अज्ञातकुलशील हो गए विश्वविद्यालयों, भ्रष्ट और अक्षम हिंदीसेवी संस्थाओं, सांस्कृतिक साक्षरताहीन पत्रकारिता आदि का क्षेत्र भी है। ये सभी हिंदी पर कलंक हैं। यह वह अंचल भी है, जो अपने साहित्य और कलाओं से अधिकतर बेखबर है। जिसे दरअसल पता ही नहीं है कि उसकी भाषा में कितना महत्त्वपूर्ण साहित्य रचा गया है; जो भूल चुका है कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और कथक नृत्य के अधिकांश घराने हिंदी अंचल में जन्मे और विकसित हुए थे और जो अब वहां नहीं रह गए हैं। अपनी इस बढ़ती सांस्कृतिक दरिद्रता से हिंदी अंचल अनजान है और उसे दूर करने के लिए रत्ती भर सजगता या प्रयत्न नजर नहीं आते। हिंदी को इसे लेकर भी संकोच करना चाहिए। आखिरी बात। हिंदी अंचल धीरे-धीरे अपने एक बहुत उजले उत्तराधिकार से दूर हो रहा है। उसके राजभाषायी रूप में भले तत्सम संस्कृत शब्दों की अबूझ भरमार है, पर वह संस्कृत से दूर हट रहा है। उस संस्कृत से, जिसमें अदम्य निर्भयता, अक्लांत उदात्तता और बहुत सारे ज्ञान और दृष्टियों की बहुलता रही है। संस्कृत धार्मिक अनुष्ठानों, संस्कारों के समय अनपढ़ ढंग से उच्चरित किए जाने तक महदूद होती जा रही है। दूसरी ओर, उसे वर्णाश्रम का पोषक मान कर उसके विरुद्ध दलित पूर्वग्रह फैलता जाता है। संस्कृत के कुछ पक्ष आज तिरस्करणीय जरूर हैं, पर उसमें उनके अलावा बहुत कुछ और है, जो हमारी जातीय स्मृति का अनिवार्य अंग है और हम उससे अज्ञानपूर्वक अपने को वंचित कर रहे हैं। ‘हिंदी’ सप्ताह या पखवारे में हमें इन संकोचों के बारे में निस्संकोच सोचना चाहिए।
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