शुचि पाण्डेय जनसत्ता 7 सितंबर, 2014: हृदयेश के उपन्यास शब्द भी हत्या करते हैं में एक संवेदनशील मनुष्य, जो रचनाकार भी है, अपने परिवेश, समाज, परिचितों, बंधु-बांधवों से जुड़े अनुभव घटनाएं बता रहा है। इन घटनाओं, अनुभवों ने पहले कहानी का रूप लिया और फिर उपन्यास का फलक पा लिया है। चूंकि एक रचनाकार का अनुभव संसार विस्तृत और गहरा होता है, इसलिए यहां प्रत्येक प्रसंग, घटना या विचार जितना व्यक्तिगत है उतना ही समष्टिगत भी। हृदयेश ने अपने उपन्यास में व्यक्ति को केंद्र में रख कर समाज को प्रस्तुत किया है। बड़े शहरों की भागदौड़, जीवन-शैली, तनाव, शहरी जीवन का अकेलापन, कुंठा, उपलब्धि-विफलता के बरक्स यह उपन्यास एक कस्बे की कहानी है। वह कस्बा जहां चकाचौंध नहीं है, सामान्य जीवन और उसकी अपनी जटिलताएं हैं। इस जीवन में धर्म, जाति, वर्ग, विचारधारा आदि सब कुछ जमीनी सच्चाई के साथ प्रस्तुत है। उपन्यास के प्रमुख पात्र शारदा शरण एक रचनाकार हैं। व्यक्तिगत जीवन में एक पत्नी, दो बेटे और एक दत्तक पुत्री है। शारदा शरण के बेटे ने एक ही शहर में रहते हुए अपने पिता से दूरी इसलिए बना ली, क्योंकि उन्होंने अपनी संपत्ति दत्तक पुत्री के नाम कर दी है। शारदा शरण निजी संबंधों में भी अपने मूल्यों के साथ जीते हैं और उसके लिए कीमत चुकाने को तैयार हैं। पत्नी की मृत्यु और संतानों से दूरी ने शारदा शरण को रचनाकर्म की ओर प्रेरित किया। यह स्वीकारोक्ति है कि ‘लेखन है तो मैं हूं उसका होना मेरे होने की सार्थकता है।’ लेखन कर्म कितनी दुरूह और श्रमसाध्य प्रक्रिया है, यह शारदा शरण को देखने से पता चलता है। साहित्य समाज में जहां एक कहानी के बल पर रचनाकार स्वयंभू प्रतिष्ठित लेखक बन जाना चाहता है, ऐसे परिवेश में शारदा शरण का लेखन को लेकर किया जाने वाला तप इस बात को प्रमाणित करता है कि वह साहित्य ‘जो पढ़ने वाले को आदमी बना दे’ एक कठिन काम है। इस उपन्यास की बुनावट कोलाज की तरह है। शारदा शरण अपने आसपास बिखरे पात्रों, चरित्रों, घटनाओं को देख-गुन कर नई कहानी रचना चाहते हैं, लेकिन ये चरित्र अपनी वास्तविक कहानी कहते हैं। इस कहानी में एक प्रमुख पात्र है- राधेश्याम। इस नाम के दो पात्र हैं। एक ही नाम के दो चरित्रों को आमने-सामने रख कर विरोधाभास पैदा किया गया है। एक राधेश्याम, जो कामरेड के नाम से जाने जाते हैं, जिला नियोजन विभाग में लिपिक वर्ग के कर्मचारी हैं। कर्मचारी यूनियन के सचिव होने के बाद उनमें अकड़ पैदा हो जाती है कि ‘अब मैं एक सामान्य कर्मचारी नहीं हूं, उनसे ऊपर हूं।’ वे वामपंथी विचारधारा के प्रतिनिधि चरित्र हैं, जिसके लिए मनुष्यता, जीवन मूल्य आदि सबसे ऊपर विचारधारा है। इसके लिए ‘वह मार्क्स, लेनिन, माओत्से तुंग, डांगे, नंबूदरीपाद आदि के विचारों को पढ़ने लगे थे। उनके भाषणों में बुर्जुआ, पेट्टीबुर्जुआ, लुंपेन, पूंजीवाद, शोषण, सर्वहारा जैसे शब्द आने लगे थे, भले वे फिट हों या अनफिट।’ कामरेड राधेश्याम की पत्नी धार्मिक प्रवृत्ति की थीं, कामरेड को पत्नी की धर्म के प्रति आस्था बर्दाश्त नहीं, इस असहिष्णुता ने कामरेड को हिंसक बना दिया और पत्नी को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा। यहां उल्लेखनीय है कि जिस विचारधारा के घोषणापत्र की शुरुआत समाज के पिछड़े, दमित, दलित, शोषित वर्ग के अधिकारों से होती है, वास्तव में वह विचारधारा मनुष्य को मनुष्य मानने से इनकार कर देती है। भारतीय समाज में धर्म एक बड़ी सच्चाई है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता। धर्म के मूल तत्त्व और स्वरूप पर बहस की जा सकती है और यहां लेखक के विचार पूरी तरह स्पष्ट हैं- ‘हर धर्म
और विचार का मूल तत्त्व मानवता है, हर प्राणी को गरिमामय जीवन उपलब्ध कराना।’ कामरेड राधेश्याम से जुड़े ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जहां मनुष्यता और मानवीय मूल्यों की जगह खोखली विचारधाराओं और स्वार्थ-धूर्तता ने ले ली है। हृदयेश ने आरक्षण जैसे मुद्दों की जमीनी हकीकत को बयान किया है और इस विषय को पुनर्विचार के लिए प्रस्तुत किया है। बसंता जाति का बनिया था। वह नगरपालिका में सफाईकर्मी के पद पर नियुक्ति पा गया था। घर की जर्जर आर्थिक स्थिति के कारण बसंता यह नौकरी करने को तैयार था, लेकिन कामरेड राधेश्याम ने इस नियुक्ति को ‘दलित वर्ग के लिए आरक्षित पद सवर्ण व्यक्ति द्वारा गलत तरीके से हड़पा जाना’ कह कर दलित वर्ग के एक ऐसे व्यक्ति को नौकरी दिला दी, जिसकी आर्थिक स्थिति बसंता से बेहतर थी। अपनी नौकरी बचाने के लिए बसंता ने हर संभव प्रयास किया, लेकिन विफल रहा। नौकरी चली जाने के कारण उसकी दमा रोगी पत्नी बरतन मांजने और जवान बहन ऐसे घर में खाना बनाने जाने लगी, जो बदचलनी के लिए बदनाम था। बसंता विक्षिप्तावस्था में पहुंच गया और अंत में दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गई। बसंता की मृत्यु यह सोचने पर मजबूर करती है कि समाज में जाति पर आधारित आरक्षण से ज्यादा बड़ी सच्चाई आर्थिक संपन्नता और विपन्नता की है। राधेश्याम नाम का दूसरा पात्र किसी वाद या विचारधारा से प्रभावित नहीं है। दरअसल, एक ही नाम के दो चरित्रों की सृष्टि इस यथार्थ को स्पष्ट तरीके से प्रस्तुत करती है कि समाज के शोषित वर्ग की आवाज उठाने वाली घोषित विचारधाराएं व्यावहारिक धरातल पर कितनी खोखली साबित हो रही हैं। आज के जटिल और क्रूर समय में मानवीय मूल्यों को व्यक्तिगत स्तर और प्रयासों से ही बचाया जा सकता है। राधेश्याम व्यक्तिगत प्रयासों द्वारा मानवीय गुणों को बचाता है। हृदयेश ने जाति, धर्म, आरक्षण, परिवार, समाज, विचारधारा सभी मुद्दों पर कभी पात्रों तो कभी घटनाओं के माध्यम से अच्छी बहस चलाई है। अंत में इन बहसों के लिए बुद्धिजीवियों की एक संगोष्ठी रखी गई है। यहां गांधी, लोहिया, क्रांति दल आदि की तुलना और इनकी प्रासंगिकता पर लेखक की वैचारिकी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है कि वे गांधी को अंतिम विकल्प के रूप में स्वीकार करते हैं। वैश्विक स्तर पर गांधी का अहिंसा का सिद्धांत जितना प्रासंगिक है, पूंजीवाद के बरक्स रखी गई स्वदेशी की परिकल्पना भी उतनी ही प्रासंगिक है। हृदयेश ने यहां खुद को रोक लिया है, यहां से वे अपनी दिशा बदल लेते हैं और तमाम वादों, विचारधाराओं का जवाब रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘गोरा’ में खोजते हैं। ‘शब्द भी हत्या करते हैं’ कथानक की दृष्टि से कमजोर होते हुए भी देश, समाज, परिवार, व्यक्ति, विचारधारा आदि से जुड़े प्रश्नों से एक साथ जूझता है।
शब्द भी हत्या करते हैं: हृदयेश; भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली; 130 रुपए।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta
|