Tuesday, 02 September 2014 11:01 |
जनसत्ता 2 सितंबर, 2014: भारत में अदालतों पर मुकदमों का जैसा बोझ है वैसा दुनिया में कहीं और नहीं होगा। देश भर में कुल लंबित मामलों की तादाद सवा तीन करोड़ तक पहुंच चुकी है। मुकदमे बरसों-बरस खिंचते रहते हैं और यह हमारी न्यायिक व्यवस्था की सबसे बड़ी पहचान बन चुका है। वादी-प्रतिवादी अदालतों के चक्कर काटते और अपना पैसा और समय गंवाते रहते हैं। पर इससे भी बड़ी त्रासदी वे लोग भुगतते हैं जो अपने खिलाफ चल रहे मुकदमे में फैसले का इंतजार करते हुए कैदी का जीवन जीने को अभिशप्त होते हैं। बहुतों के लिए यह इंतजार अंतहीन साबित होता है। अगर किसी ने कोई जुर्म किया है तो उसकी सजा उसे भुगतनी ही होगी। पर विडंबना यह है कि बहुत-से लोग बिना दोष साबित हुए जेल में सड़ते रहते हैं। कुल कैदियों में इन्हीं की तादाद ज्यादा है। सजायाफ्ता कैदी एक तिहाई हैं, बाकी ऐसे हैं जिनके मामले में अदालत ने कोई फैसला नहीं सुनाया है। फिर, विचाराधीन कैदियों में ऐसे लोग भी हैं जो अपने ऊपर लगे आरोप की संभावित अधिकतम सजा का अधिकांश समय जेल में बिता चुके हैं, कुछ तो संभावित सजा की अवधि बीत जाने के बाद भी बंद रहते हैं। मानवाधिकारों की इससे ज्यादा दुर्दशा और क्या होगी! विचाराधीन कैदियों का मसला कई बार उठा है, पर उसे सुलझाने के लिए कुछ खास नहीं हो पाया। अब एक बार फिर इस दिशा में पहल की उम्मीद जगी है। विचाराधीन कैदियों की बाबत प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा के चिंता जताने के बाद केंद्र सरकार ने संकेत दिए हैं कि वैसे कैदियों को निजी मुचलके पर रिहा किया जा सकता है जिनकी संभावित सजा पूरी हो चुकी है या जो उसका आधा समय जेल में बिता चुके हैं। इससे जहां हजारों विचाराधीन कैदियों और साथ ही उनके परिजनों को बेजा यंत्रणा से मुक्ति मिलेगी वहीं जेलों की व्यवस्था भी सुधारी जा सकेगी जिन पर अनावश्यक रूप से उनकी क्षमता से बहुत ज्यादा कैदियों को रखने का बोझ है। लंबित मामलों की तादाद भी घटाई
जा सकेगी। दंड प्रक्रिया संहिता इसमें बाधक नहीं है, अगर हो तो कानून में अपेक्षित संशोधन जरूर किया जाना चाहिए। अलबत्ता विधिमंत्री ने कहा है कि अदालत का फैसला आए बिना रिहाई की छूट मृत्युदंड या आजीवन कारावास के संभावित मामलों में नहीं होगी। उन्होंने एक ऐसा डाटाबेस बनाने का भरोसा दिलाया है जो कैदी के जेल में पहुंचने से लेकर उससे संबंधित सारी सूचनाएं मुहैया कराए, ताकि किसी ने अपनी संभावित सजा का कितना समय जेल में बिताया है यह फौरन जाना जा सके। देश भर की जेलों में कुल 3.81 लाख कैदी हैं। इनमें विचाराधीन कैदी करीब 2.54 लाख हैं, यानी कुल कैदियों के दो तिहाई। विचाराधीन कैदियों की इतनी बड़ी संख्या के पीछे निश्चय ही एक बड़ा कारण न्यायिक प्रक्रिया का बेहद सुस्त होना है, पर इसका एक सामाजिक आयाम भी है। आदिवासियों, अनुसूचित जनजातियों और दूसरे कमजोर तबकों के बहुत-से लोग झूठे मामलों में फंसा दिए जाते हैं। फिर उनके लिए कानूनी कठिनाइयों से पार पाना और अपनी रिहाई का रास्ता साफ करना आसान नहीं होता। जबकि रसूख वाले आरोपियों पर हाथ डालने से पुलिस आमतौर पर बचती है, कई मामलों में सबूत भी बेहद कमजोर कर दिए जाते हैं। लिहाजा, यह मसला न्यायिक सुधार के अलावा पुलिस सुधार से भी जुड़ा हुआ है।
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