जनसत्ता 25 अगस्त, 2014 : नेता-प्रतिपक्ष की बाबत लोकसभा अध्यक्ष के फैसले के कुछ ही दिन बाद सर्वोच्च न्यायालय के रुख से इस मामले में नया मोड़ आ गया है। गौरतलब है कि पिछले दिनों लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सदन में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को नेता-प्रतिपक्ष का दर्जा देने की मांग नामंजूर कर दी थी। उन्होंने अपने निर्णय का आधार संसदीय परिपाटी को बनाया, जिसके मुताबिक विपक्ष के नेता-पद की दावेदारी के लिए संबंधित दल के पास लोकसभा की कुल सदस्य-संख्या का कम से कम दस फीसद होना जरूरी है। केंद्र के महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी की भी यही राय थी। परिपाटी की बात अपनी जगह सही है। पर लोकसभा अध्यक्ष ने दो बातों को नजरअंदाज कर दिया। एक, नेता-प्रतिपक्ष के वेतन-भत्तों के लिए 1977 में बने कानून को, जिसमें संबंधित सुविधाओं की खातिर न्यूनतम दस फीसद सीटों को नहीं, विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी को आधार मानने की बात कही गई है। दूसरे, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, सीबीआइ निदेशक, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष, मुख्य सूचना आयुक्त जैसी अहम नियुक्तियों में नेता-प्रतिपक्ष की राय लेना अनिवार्य है। लोकपाल की चयन समिति और प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग के दो न्यायविद-सदस्यों के चुनाव में भी उसकी राय ली जानी है।
लोकपाल के चयन को लेकर स्वयंसेवी संगठन कॉमन कॉज की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने सरकार से पूछा है कि नेता-प्रतिपक्ष के बगैर लोकपाल की नियुक्ति कैसे होगी? अभी तक भाजपा परिपाटी की दुहाई देती आ रही थी। लेकिन अदालत के इस सवाल ने उसे बचाव की मुद्रा में ला दिया है। सरकार का जवाब क्या होगा और अदालत उस पर अंतत: क्या फैसला सुनाएगी यह बाद की बात है। मगर अदालत की टिप्पणियों पर गौर करें तो उसके रुख का कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। पिछले हफ्ते मामले की सुनवाई के दौरान रोहतगी ने फिर यह दोहराया कि मावलंकर-नियम के अनुसार, नेता-प्रतिपक्ष की दावेदारी के लिए लोकसभा की दस फीसद सदस्य-संख्या होना जरूरी है। इस पर सर्वोच्च अदालत ने कहा कि केवल एक नियम या परिपाटी के आधार पर नेता-प्रतिपक्ष जैसी
संस्था को दरकिनार नहीं किया जा सकता; संविधान में इस बारे में इसलिए कुछ नहीं कहा गया होगा, क्योंकि उस वक्त किसी ने यह नहीं सोचा कि ऐसी स्थिति आएगी। जाहिर है, अदालत ने नई स्थितियों में नए सिरे से सोचने की जरूरत रेखांकित की है। पिछले साल दिसंबर में पारित लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम के मुताबिक अगर चयन समिति में कोई पद खाली हो तब भी लोकपाल की नियुक्ति अवैध नहीं होगी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी के बाद अब वैसी छूट लेना संभव नहीं होगा। अब हो सकता है सरकार नेता-प्रतिपक्ष के विकल्प की जगह विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को लोकपाल चयन समिति में शामिल करने को तैयार हो जाए। क्या वैसे अन्य पदों पर होने वाली नियुक्तियों के लिए भी यही विकल्प अपनाया जाएगा? फिर, भविष्य में कोई और ऐसी संस्था गठित हुई जिसके स्वरूप या नेतृत्व को लेकर विपक्ष की राय जरूरी मानी गई, तो उसमें भी इसका अनुसरण करना पड़ेगा। इस तरह अलग-अलग प्रावधान करने के बजाय नेता-प्रतिपक्ष की कसौटी ही बदलना बेहतर होगा। यह सही है कि दस फीसद सीटों की परिपाटी संसद ने तय की थी, मगर 1977 में बना कानून और लोकपाल और न्यायिक नियुक्ति आयोग जैसे कानून भी तो संसद से ही पारित हुए हैं। इसलिए परिपाटी की दलील को अब खींचते रहने का कोई औचित्य नहीं है।
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