लक्ष्मीकांता चावला जनसत्ता 22 अगस्त, 2014 : हमारे देश के सभी प्रांतों की सरकारें बच्चों के भविष्य, उनके पोषण और शिक्षा के प्रति कितनी गंभीर हैं, इसका उदाहरण इसी तथ्य से स्पष्ट है कि देश के इकतीस फीसद स्कूलों में शौचालय नहीं हैं। जो दोपहर का भोजन दिया जाता है, वह भी इस योग्य नहीं कि माननीयों के बच्चे उस भोजन को खा सकें। कुछ बड़े शहरों के सरकारी स्कूलों को छोड़ कर अधिकतर स्कूल भवनों की हालत खस्ता है। लेकिन गरीब का बच्चा जैसे-तैसे चार अक्षर सीखने इन स्कूलों में पहुंचता है। मुझे कुछ समय पहले टीवी चैनलों पर वह स्कूल भी देखने को मिला, जहां पहुंचने के लिए बच्चे जान जोखिम में डाल कर नदी पार करते हैं। हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने जो निर्णय दिया, वह स्कूलों की हालत का शोचनीय उदाहरण है। उसने आदेश दिया कि पंजाब के सभी स्कूलों में जो कमरे लोक निर्माण विभाग ने असुरक्षित घोषित किए हैं, उन्हें शीघ्र गिरा दिया जाए। अब वैसी ही अफरातफरी में काम शुरू हो गया जैसा नशों की रोकथाम के लिए सरकार ने शुरू किया था। स्कूलों के प्रबंधक, प्रधानाध्यापक, जिला शिक्षा अधिकारी अब इस चिंता में हैं कि नए कमरे बनाना तो दूर, पुराने कमरे गिराने के लिए धन का प्रबंध कहां से और कैसे किया जाए और गरमी और वर्षा से बचाने के लिए बच्चों को कहां बिठा कर पढ़ाया जाए। सवाल है कि जो कमरे अब गिराने का आदेश अदालत ने दिया, क्या वे एक ही दिन में असुरक्षित हो गए? वर्षों तक बच्चों की जान जोखिम में डाल कर उन्हें वहां क्यों बिठाया गया? जानकारी के मुताबिक जालंधर, नवांशहर, गुरदासपुर, होशियारपुर, कपूरथला और तनरतारन जैसे कई जिलों में बहुत सारे स्कूल ऐसे हैं, जिनकी इमारतें कमजोर हैं। उनमें अध्यापक और बच्चे मौत के साए में पढ़ने-पढ़ाने को विवश हैं। सवाल है कि अगर वर्षों पहले ही पंजाब का लोक निर्माण विभाग इन भवनों को असुरक्षित घोषित कर चुका था तो अब तक इन्हें गिराया क्यों नहीं गया और नए भवन क्यों नहीं बनाए गए? ऐसा शायद इसलिए किया गया होगा कि इन स्कूलों में न तो सरकार और सरकारी अधिकारियों के बच्चे पढ़ते हैं और न उन्होंने कभी इन स्कूलों की हालत को नजदीक से देखा है। अमृतसर नगर में केवल उन्नीस साल पहले करोड़ों रुपए की लागत से बने सर्किट हाउस के शानदार और सब प्रकार की सुविधाओं से सुसज्जित कमरों को गिराने का काम पंजाब सरकार ने शुरू कर दिया है। शायद नए सर्किट हाउस को वे पांच सितारा सुविधाओं से लैस बनाना चाहते हैं। लेकिन जो सरकारी स्कूलों के भवन बच्चों के बैठने के लिए असुरक्षित घोषित कर दिए गए, उन्हें बनाने की न तो सरकार को
चिंता है और न उसके लिए अनुदान मिलने की उम्मीद दिख रही है। लेकिन अगर सचमुच सरकार धन के अभाव के कारण नए भवन नहीं बनवा सकी तो कितना अच्छा होता कि कम से कम दो वर्षों के लिए सभी सांसदों और विधायकों, मुख्य संसदीय सचिवों को यह निर्देश दे दिया जाता कि वे अपनी निधि का सदुपयोग केवल अपने-अपने क्षेत्र के स्कूलों के भवनों की स्थिति सुधारने में करें। इससे हमारे गरीब विद्यार्थी सुविधाजनक सुखद वातावरण में शिक्षा भी प्राप्त कर लेते और जीवन का खतरा भी सामने न रहता।मुझे हैरानी होती है कि जिस देश के इकतीस फीसद स्कूलों में छात्राओं के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं, उस देश के राजनेता वोट लेने के लिए कभी विद्यार्थियों को लैपटॉप या साइकिल बांटते हैं, तो कभी स्कूटी दिलाने का भरोसा देते हैं। इसी देश में विद्यार्थी असुरक्षित भवनों में पढ़ने को मजबूर हैं। इन स्कूलों में अध्यापकों की कमी भी एक बहुत बड़ी समस्या है। जब कोई विधायक या सांसद त्यागपत्र दे देता है या उसकी मौत हो जाती है तो उसकी सीट छह महीने के अंदर ही भर ली जाए, यह व्यवस्था है। पर अध्यापकों के पद वर्षों तक खाली पड़े रहें तो भी सरकारें भर्ती करने का आदेश नहीं देतीं। पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने असुरक्षित कमरे गिराने का आदेश तो दे दिया, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि न्यायालय से ही यह प्रार्थना करनी होगी कि नए कमरे बनवाने का आदेश भी वही जारी करे। अन्यथा सरकार नए होटल, सर्किट हाउस तो अपनी सुविधा के लिए बना लेगी, पर स्कूलों के भवन तभी बनेंगे, जब न्यायालय आदेश देगा। लेकिन सच यह भी है कि न्यायालय के आदेश मानने में भी हमारी सरकारें बहानेबाजी करती हैं। ठीक उसी तरह जैसे न्यायालय के आदेश के बावजूद राष्ट्रीय राजमार्गों से शराब के ठेके खत्म नहीं किए गए। कहीं-कहीं कानून को भ्रम में डालने के लिए ठेके का दरवाजा सड़क के दूसरी ओर निकाल लिया है।
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