पल्लव जनसत्ता 20 अगस्त, 2014 : हमारी सोसायटी के कुछ पड़ोसी धीरे-धीरे हम पर भरोसा करने लगे हैं और उनके घरों की चाबियां हमारे घर आ जाती हैं। एक पड़ोसी सहरावतजी के बच्चे स्कूल से देर से आते हैं, तब तक सहरावत दंपति काम पर जा चुके होते हैं। इसका समाधान यही निकाला गया कि वे हमारे घर अपनी चाबी छोड़ देंगे, जिसे बच्चे आते ही लेकर घर चले जाएंगे। मुंजाल साहब, जैन साहब और पंडितजी भी यदा-कदा चाबी छोड़ ही जाते हैं। मैं सोचता हूं कि महानगर में भी क्या ऐसी आपसदारी संभव है? जबकि अतीत में एक बार सहरावतजी के घर से दिन-दहाड़े चोरी हो चुकी है। डर तो नहीं, आशंका रहती है कि चाबी यहां रखी है और पीछे से कुछ हो न जाए! मैं लौट कर अपने शहर चित्तौड़गढ़ पहुंचता हूं। मैं तीसरी कक्षा का विद्यार्थी था, जब मां की नौकरी के कारण हम यहां आ गए थे। मम्मी नौकरी करने अपने स्कूल चली जातीं और मैं पढ़ने अपने स्कूल। मेरी छुट््टी साढ़े चार बजे होती और मम्मी साढ़े पांच-छह बजे तक आ पातीं। तब तक घर की चाबी पड़ोसी व्यासजी के यहां रहती। मैं आते ही चाबी लेता। रसोई में जाकर खाने को कुछ खोजता। फिर खा-पीकर बाहर खेलता-कूदता। शाम होते-होते मम्मी भी आ जातीं। यह लंबा दौर था। तीसरी से एमए तक का। आदत ही ऐसी हो गई थी कि फिर चाबी संभालना झंझट लगता था। यह डर भी शाश्वत था कि कहीं खो गई, गिर गई तो जाकर ताला तोड़ना पड़ेगा। एक बार ऐसा हुआ भी था। तब मैं चौथी-पांचवीं में रहा होऊंगा। चाबी जेब में रखे-रखे खेलने चला गया और वह कहीं खो गई। अब मैं निरुपाय और बेबस था। शाम को मम्मी के आने पर पड़ोसियों ने ही ताला तोड़ा, तब हमारा गृह-प्रवेश हो पाया। कई बार पड़ोसियों से अनबन-अबोला भी हुआ, लेकिन चाबी को फिर भी उन्हीं की शरण मिलती रही। यह केवल चाबी की शरण नहीं थी, बल्कि पीछे से आने वाली डाक की सुरक्षा का बीमा था और कभी किसी मेहमान के आ जाने पर चाय वगैरह का पुख्ता बंदोबस्त भी। मैं मजाक में कहता हूं कि हमें चित्तौड़गढ़ में अपनी चाबी पड़ोसियों के घर रखने का कर्ज दिल्ली में चुकाना पड़ रहा है। कई बार यह काम घर वालों को नागवार लगता है, जब तेज गरमी में घर की घंटी बजती है और बाहर जाकर चाबी लौटानी पड़ती है। कई बार यह भी होता है कि दूसरी चाबी से घर वाले अपना काम चला लेते हैं, लेकिन अगले दिन की दिक्कत से बचने के लिए सुबह-सुबह फिर घंटी बजा कर चाबी
मांगते हैं। सोचता हूं कि हमें इतनी-सी असुविधा से कोफ्त होती है, लेकिन क्या वे भी इसी संसार के लोग नहीं हैं, जिनके भरोसे लोग अपने बच्चों को छोड़ कर काम पर जाते होंगे? मैं क्रेच या शिशु पालन केंद्रों की बात नहीं कर रहा। पड़ोस के आंगन में खा-खेल कर बड़े हो जाने वालों के अनेक किस्से अब भी सुनने को मिल जाते हैं। मगर हमारी इसी सोसायटी में अनेक मित्र इस बात से दुखी रहते हैं कि उनकी अनुपस्थिति में आने वाले कोरियर और डाक वालों को पड़ोसी बैरंग लौटा देते हैं। कई बार जरूरी चिट्ठियां आकर लौट जाती हैं। मां कहती हैं कि वे सौभाग्यशाली हैं, जिनके घरों पर चमड़ी का ताला लगा है, यानी कोई न कोई बुजुर्ग घर में है। लेकिन ऐसा सबके साथ तो संभव नहीं हो सकता। एकल परिवार के जिस नए दौर में हमारा समाज बढ़ रहा है, वहां सामूहिकता में सबका हित है, जबकि उपभोगमूलक नई जीवन शैली हर किसी को बुरी तरह इकलखुरा बनाने में जुटी है। किसी के निजी जीवन में ताकझांक करना अनुचित हो सकता है, लेकिन किसी के निजी तनाव और संकट में सहयोगी हो सकना क्या सच्ची मनुष्यता नहीं है? महानगरों में रोजमर्रा के छोटे-छोटे तनाव कितने त्रासदायक हो सकते हैं, यह वह व्यक्ति भली भांति जान सकता है, जिसे मामूली काम के लिए दस चक्कर यहां-वहां लगाने पड़े हों। यह हो सकता है कि सहयोगी बनने की प्रक्रिया में कभी कोई अप्रिय बात भी हो जाए या अपने लिए भी कोई परेशानी खड़ी हो जाए तब भी क्या आपसदारी एक जरूरी मूल्य नहीं है? कृत्रिम संकोच की फैशनपरस्ती को छोड़ कर पड़ोस का धर्म जानने-निभाने की यत्किंचित कोशिश भी हमारे समाज के लिए सौहार्दपूर्ण हो सकती है। इसके लिए दीपावली के तोहफे के बजाय चाबी जैसी छोटी चीज भी कहीं ज्यादा आश्वस्तिदायक है।
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