Tuesday, 19 August 2014 12:04 |
जनसत्ता 19 अगस्त, 2014 : लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार का साथ आना निश्चय ही बिहार की राजनीति का एक नया मोड़ है, मगर यह पहल राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित कर पाएगी इस बारे में कुछ कहना फिलहाल जल्दबाजी होगी। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (एकी) और कांग्रेस के गठजोड़ का एलान पहले ही हो गया था। अब लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने राज्य की दस विधानसभा सीटों पर हो रहे उपचुनाव के लिए साथ-साथ चुनाव प्रचार कर जाहिर किया है कि वे दो दशक पुराना सियासी बैर भुला चुके हैं। छपरा में साझा चुनावी रैली को संबोधित करते हुए नीतीश कुमार ने कहा कि बीस साल पहले वे कुछ मुद््दों पर लालू प्रसाद से अलग हो गए थे, लेकिन बिहार में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए दोनों साथ रहेंगे। मतभेद के मुद्दे क्या थे यह न तो नीतीश कुमार ने साफ किया न लालू प्रसाद ने। दोनों की वैचारिक पृष्ठभूमि एक ही रही है, इसलिए किसी नीातिगत मतभेद के चलते दोनों ने अलग-अलग राह चुनी होगी यह मानने का कोई कारण नहीं दिखता।
अब उन्हें एक दूसरे से हाथ मिलाना पड़ा है तो इसकी जरूरत लोकसभा चुनावों के नतीजों ने पैदा की है। उन्हें अहसास हो चुका है कि वे अलग-अलग रह कर भाजपा की चुनौती से पार नहीं पा सकेंगे। लेकिन उनके गठजोड़ ने जरूर भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। राजद, जद (एकी) और कांग्रेस को बिहार में लोकसभा चुनावों में कुल चौवालीस फीसद वोट मिले थे, जबकि राजग को अड़तीस फीसद। भाजपा यह मान कर चल रही है कि उसके विरोधी गठजोड़ को कुल उतना वोट नहीं मिलेगा जितना लोकसभा चुनाव में उनका सम्म्मिलित आंकड़ा था। इस अनुमान को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। बहुत सारे चुनावों का यह अनुभव है कि गठजोड़ में शामिल दलों के सारे वोट एक दूसरे की झोली में नहीं जा पाते हैं। पर भाजपा भी उतने वोट खींचने की उम्मीद कैसे कर सकती है जितने उसे लोकसभा चुनाव में मिले थे? उत्तराखंड की तीन विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों ने बता दिया है कि
अच्छे दिन आने के मोदी के नारे का जादू टूट चुका है। अब स्थानीय कारण और प्रादेशिक समीकरण कहीं ज्यादा असर दिखा सकते हैं। अगर उपचुनाव के नतीजे भाजपा के लिए झटका साबित हुए तो अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा के चुनावों के मद््देनजर उसकी मुश्किलें और बढ़ जाएंगी। लालू प्रसाद ने मुलायम सिंह और मायावती से भी अपील की है कि वे भाजपा के खिलाफ एक हो जाएं। पर यह होता नहीं दिख रहा। मुलायम सिंह ने भले सकारात्मक प्रतिक्रिया जताई हो, मायावती ने कहा है कि वे अपने सम्मान के साथ कोई समझौता नहीं कर सकतीं। इशारा जून, 1995 के गेस्ट हाउस कांड की तरफ है जब सपा के लोगों ने उन पर हमला किया था। पर इसके अलावा भी कुछ वजह हो सकती है, जिसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। मायावती को लगता होगा कि अगर वे मुलायम सिंह से हाथ मिला लेंगी, तो अखिलेश सरकार के फैसलों का विरोध किस मुंह से करेंगी! राज्य सरकार पर निशाना साधते रह कर उत्तर प्रदेश में भाजपा के सीधे मुकाबले में आने की उनकी रणनीति धरी रह जाएगी। मुलायम सिंह भी जानते हैं कि मायावती उनसे मेल-मिलाप के लिए तैयार नहीं हो सकतीं। पर उन्होंने सकारात्मक संकेत दिया तो शायद यह दर्शाने के लिए कि भाजपा को रोेकने की खातिर वे हर कदम उठाने को तैयार हैं। फिर वे अपनी पार्टी की सरकार का कामकाज सुधारने के लिए प्रयत्नशील क्यों नहीं हैं!
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