Thursday, 14 August 2014 11:27 |
जनसत्ता 14 अगस्त, 2014 : एक बार फिर गन्ने के बकाये का भुगतान पाने के लिए किसान आंदोलन की राह पर हैं। पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों ने मंगलवार को गाजियाबाद और नोएडा में चीनी मिल मालिकों के दफ्तरों पर प्रदर्शन किए। यह नजारा लगभग हर साल देखने में आता है। यह हैरत की बात है कि किसानों को अपना ही बकाया पैसा पाने के लिए हर बार आंदोलन करना पड़े। अगर किसान कोई नई मांग करते या किसी फसल का समर्थन मूल्य बढ़ाने को कहते तो गतिरोध की बात समझी जा सकती थी। वे सिर्फ अपना पैसा मांग रहे हैं, जो चीनी मिलों पर बकाया है। कायदे से गन्ना बेचने के पखवाड़े भर के भीतर उन्हें भुगतान हो जाना चाहिए। लेकिन अक्सर साल बीत जाने के बाद भी उन्हें यह नहीं मिलता। इससे जहां उनके सामने जीवनयापन की मुश्किलें आती हैं वहीं अगली फसल की लागत का जुगाड़ करना भी कठिन हो जाता है। अभी तक चीनी निगम की सिर्फ एक मिल ने उन्हें पूरा पैसा चुकाया है। उत्तर प्रदेश की निजी चीनी मिलों पर किसानों के हजारों करोड़ रुपए बकाया हैं।
यह सही है कि चीनी उद्योग की हालत ठीक नहीं है। लेकिन किसानों के बकाये के भुगतान का रास्ता साफ करने के लिए ही पिछले साल उन्हें चार सौ करोड़ रुपए का ब्याज-मुक्त कर्ज दिया गया था। जबकि गन्ने की कीमत तीन सौ चालीस रुपए प्रति क्विंटल करने की मांग नहीं मानी गई थी। जो दर तय हुई, उसका भी एक अंश बाद में चुकाने की छूट मिल मालिकों को दे दी गई। इसके बावजूद मिल मालिक भुगतान टालते आ रहे हैं। जून में मोदी सरकार ने उन्हें चौवालीस सौ करोड़ की ब्याज-मुक्त राशि देने का एलान किया, ताकि वे किसानों का पैसा अदा कर सकें। पर अब भी किसानों को अपने बकाये के लिए दर-दर की ठोकर खानी पड़ रही है। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के निजी चीनी मिलों के संगठन ने मिलें बंद करने की धमकी दी है। दरअसल, यह उनका पुराना हथकंडा है। दबाव बना कर वे अपने लिए ज्यादा से ज्यादा रियायतें ऐंठने के आदी
हो चुके हैं। इसलिए वे किसी न किसी बहाने भुगतान टालते रहते हैं। इस स्थिति के लिए सरकारें कम जिम्मेवार नहीं हैं। यों किसानों के लिए आंसू बहाने में वे कभी पीछे नहीं रहतीं, पर परदे के पीछे मिल मालिकों के साथ ही होती हैं। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे प्रमुख गन्ना उत्पादक राज्यों में उनसे राजनीतिकों की मिलीभगत रहती आई है। इसके फलस्वरूप चीनी उद्योग ने व्यापारिक गिरोह की शक्ल ले ली है। उच्च न्यायालय के निर्देश के बावजूद किसानों को अपना बकाया नहीं मिल पा रहा है तो इससे मिल मालिकों के बेहद अड़ियल रवैए का अंदाजा लगाया जा सकता है। भुगतान अटके रहने का खमियाजा किसानों को तो भुगतना पड़ता ही है, बीच-बीच में कई साल गन्ने की बुआई का रकबा घटने के भी प्रमाण हैं। भुगतान में होने वाले विलंब के अलावा हर साल गन्ने की कीमत को लेकर भी जिच पैदा होती है। साल-दर-साल के कड़वे अनुभव के बावजूद इसका कोई संतोषजनक फार्मूला सरकार क्यों नहीं निकाल सकी है? दर-निर्धारण का जिम्मा नौकरशाहों को देने के बजाय क्यों न इसे कृषि वैज्ञानिकों की सलाह से तय किया जाए? यों मामला सिर्फ गन्ने का नहीं है। दूसरी उपज का भी न्यायसंगत मूल्य किसानों को अक्सर नहीं मिल पाता है। खेती दिनोंदिन घाटे का धंधा बनती गई है। और भी विडंबना यह है कि कृषि के इस संकट को दूर करने के बजाय हमारे नीति नियामकों ने इसे नियति की तरह मान लिया है।
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