पूर्णिमा अरुण जनसत्ता 13 अगस्त, 2014 : इन दिनों मेरी एक नई पहचान है- बेड नंबर अठारह। इस पहचान का वास्ता एक हादसे से है। मेरे दाहिने पैर की एड़ी और पंजा टूटे पड़े हैं, घायल हैं। यह हादसा क्यों हुआ? क्योंकि जहां मैं रहती हूं, वहां सड़कें तो हैं, मगर फुटपाथ नहीं, जहां आदमी पैदल चल सके। जहां चलते हुए उसे सड़क पर दौड़ती बड़ी-बड़ी गाड़ियों से कुचले जाने का भय न हो। यह हादसा एक सुबह हुआ। मैं कुत्ते को रोटी खिलाने गई थी। जहां रहती हूं, वह एक छोटी-सी कॉलोनी है, जहां सबेरे-सबेरे अंदर की सड़कें खाली-सी पड़ी होती हैं। फिर भी एक कार मेरा पैर कुचल गई। कार बड़ी थी और सड़क संकरी। वह भी फुटपाथ-विहीन। बिल्कुल किनारे और संभल कर चलते हुए भी कार ने ऐसा धक्का मारा कि मुझे इस बिस्तर पर आकर गिरना पड़ा। जिस कॉलोनी में यह हादसा हुआ, उसको बसाने की योजना शायद बीस बरस पहले बनी होगी। तब यह अनुमान ही न होगा कि इस कॉलोनी के मकानों में रहने वाला मध्यवर्ग एक दिन बड़ी-बड़ी गाड़ियों का मालिक बन जाएगा, जिनके लिए इस कॉलोनी की सड़कें छोटी पड़ जाएंगी। एक बात और। जमाने भर की जिस हरियाली को उजाड़ कर यह नया मध्यवर्ग बन रहा है, उसके लिए घर के सामने सड़क की जमीन पर कब्जा कर बगीचा बनाना भी एक स्टेटस सिंबल है। सड़क और मकान के बीच जो दो-ढाई फुट की जगह योजनाकारों ने फुटपाथ के नाम पर छोड़ी होगी, वह बगीचों की भेंट चढ़ गई। या फिर बड़ी गाड़ियों के पोर्च में बदलते हुए, बड़ी ढलानों से खत्म कर दी गई। ऐसे में पैदल चलने वाले जाएं कहां! लेकिन यहीं कसर पूरी नहीं होती। कॉलोनी में कोई न कोई काम हमेशा चलता रहता है, जिसे ‘नया डेवलपमेंट’ कहा जाता है। एक माले के मकानों को दो-तीन और चारमंजिला इमारतों में बदलने का काम जैसे खत्म ही नहीं होता। पैसा जेब में आया नहीं कि उसे मकान में चिपका दो- क्योंकि इससे रुतबा भी बढ़ेगा और मकान की मार्फत पैसा भी। सारी छोटी-बड़ी कॉलोनियों का एक ही हाल है। इसका भी नतीजा सड़क भुगतती है। र्इंट-गारे, चूने, रेत- सबकी जगह सड़क पर होती है। निर्माण से निकला मलबा वहां शान से पसरा रहता है। इस पर एक जुल्म और चलता रहता है- खुला और बहता पानी। मेरे पति ‘पानीबाबा’ इस बात को लेकर बहुत परेशान रहते हैं कि आधुनिक समाज ड्रेनेज की महत्ता को समझता क्यों नहीं। अगर वह इस शब्द की गहराई ठीक से समझ और उसे सामान्य जीवन में उतार लेता तो कई बड़ी-छोटी समस्याएं जड़ से खत्म हो जातीं। शायद मेरे साथ हादसा भी नहीं होता। उस सुबह मैं बेहद तृप्त और खुश थी। जिस कुतिया को मैंने दूध रोटी खिलाई, वह मां बनने वाली थी। इसी तृप्ति में कुछ और टहल लेने के खयाल से मैं इस छोटी-सी
कॉलोनी के बड़े से पीले गेट के भीतर वाली सड़क पर चली गई, जहां सुबह-सुबह गाड़ियों की आवाजाही नहीं के बराबर होती है। गेट से घुसते ही वह मकान दिखा, जहां फिर निर्माण कार्य चल रहा था। सड़क तक बनी उस मकान की ढाल पर तेज धार से पानी बह रहा था और अंदर एक मजदूर नहा रहा था। यही स्थिति दो-चार दिन पहले भी मैंने देखी थी और सोचा था कि उसे सलाह दूंगी कि इतने मोटे पाइप की तेज धार से नहाते हुए पानी बर्बाद करने और सड़क पर बिखेरने की जगह वह बाल्टी का इस्तेमाल करे। लेकिन शायद इस संकोच में नहीं कह पाई कि पानी को लेकर अनेक संस्थाओं के लगातार जनजागरूकता अभियानों के बावजूद जब तथाकथित बड़े लोग और योजनाकार ड्रेनेज की अहमियत नहीं समझ पाए, तो इस गरीब को इसका जिम्मेदार या गुनहगार क्यों ठहराएं। खैर, मैं उस बहते पानी से बचती-बचाती चल रही थी कि एक कार का हल्का-सा हॉर्न सुनाई दिया। मुड़ कर देखा तो एक बड़ी कार पीले गेट में घुस रही थी। सोचा कि कीचड़ पर पैर रखूं या मकान से बहते झरने पर- कहीं फिसल गई तो गाड़ी के नीचे आ जाऊंगी। लेकिन इसकी नौबत ही नहीं आई। अगले ही पल वह गाड़ी मुझे गिरा चुकी थी। उसका पहिया मेरे दाहिने पैर के पंजे के ऊपर से गुजर चुका था। जैसे कोई चुहिया किसी रथ के नीचे आकर बिलबिलाती होगी, कुछ उसी तरह मैं बिलबिलाई। खैर, गाड़ी कुछ आगे जाकर रुकी और उसे चला रही महिला ने उतर कर मुझे संभालने की कृपा की। मगर इस पूरे वाकये में गलती किसकी थी? क्या उस गाड़ी चलाने वाली की नहीं, जिसे समय पर ब्रेक लगाने का खयाल नहीं आया या फिर उस बहते हुए पानी की नहीं, जिसने सड़क को कीचड़ में बदल दिया था और जिसकी वजह से चलना मुश्किल था, या फिर उस दृष्टिविहीनता की नहीं, जो सड़क को फुटपाथविहीन कर चुकी है? लेकिन शायद इस व्यवस्था में पैदल चलने वाले बिल्कुल पैदल मान लिए जाते हैं- शायद कुचले जाने के काबिल। कभी तेज गाड़ी चलाने, मकान बनवाने और ड्रेनेज से लापरवाह एक व्यवस्था बनाने से फुरसत मिले तो सोचिएगा।
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