रूबल जनसत्ता 12 अगस्त, 2014 : पिछले दिनों मित्रों के साथ दिल्ली मेट्रो में सफर करते हुए एक ऐसे अनुभव से रूबरू होना पड़ा, जिसने हमारे बीच पल रहे एक भ्रम को तोड़ दिया। 16 दिसंबर, 2012 के निर्भया कांड के बाद ऐसा लगने लगा था, जैसे दिल्ली स्त्रियों के प्रति थोड़ी संवेदनशील हो गई है। स्त्रियों के प्रति बरती जाने वाली सामाजिक और सार्वजनिक बदतमीजी और क्रूरता थोड़ी कम हो गई है। पर उस दिन की घटना ने इस आधे सच को लगभग पूरे झूठ में तब्दील कर दिया। देर शाम को मेट्रो के उस डिब्बे में अच्छी-खासी भीड़ थी। हम तीन महिलाएं और चार पुरुष साथ थे। जब लगा कि भीड़ बढ़ गई है तो हमने सीटों की तरफ रुख किया। महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर पुरुष विराजमान थे। हम लड़कियों ने उनके करीब जाकर उन्हें कुछ देर तक अपने वहां होने की सूचना दी और सांकेतिक रूप से जताने की कोशिश की कि आप लोगों को इन सीटों को खाली कर देना चाहिए। पच्चीस-तीस साल का एक पुरुष उस सीट पर अब तक डटा था। हमारे अनुरोध पर थोड़ी खीझ के साथ वह खड़ा हो गया, मगर दूसरा व्यक्ति वहीं बैठा रहा। हममें से एक ने जब उसे उठने को कहा तो वह भी पहले वाले की तरह खीझ प्रकट करते हुए खड़ा हो गया। अपने चेहरे के हावभाव और मुद्रा से वे यह जाहिर करना नहीं भूले कि हमें सीट देकर उन्होंने अहसान किया है। मगर रोज की तरह हम लड़कियां भी अपमान का घूंट पीकर बेतकल्लुफी के साथ बैठ ही गर्इं। हम तीन थे और हममें से दो बैठ गई थीं, मगर एक अभी भी खड़ी थी। अपने बीच ही जगह बनाते हुए हमने उससे भी बैठने का अनुरोध किया। पहले हम तीनों खड़ी थीं और हमारी जगह पर वे आराम फरमा रहे थे। लेकिन ज्यों ही हम तीनों उन्हीं दो आरक्षित सीटों पर बैठ गर्इं, अचानक उन्हें लगा कि जैसे ऐसा कर उन्हें अपमानित कर दिया गया हो। सदियों की अर्जित ताकत उन्हें खामोशी से अपमान का यह घूंट पीने नहीं दे सकती थी। ताकत का अहसास दूसरे को कमजोर मानने के विचार में ही निहित है। उनके भीतर के पौरुष को जगाने के लिए इतना सब कुछ पर्याप्त था। उनमें से एक ने कहा कि और किसी को बैठना हो तो हम देशसेवा की खातिर जगह दे सकते हैं। यह कहते हुए वे ठठा कर हंसने लगे। हमें मालूम था कि यह बात हमें ही सुनाने के लिए कही जा रही है। छींटाकशी और अपमान
सहना तो हमारे वजूद का हिस्सा ही है, पर यह सब हमें उससे कहीं ज्यादा महसूस हुआ। थोड़ी तिलमिलाहट के साथ हममें से एक ने जवाब दिया- ‘भाई साहब, यह आपकी देशसेवा नहीं, हमारा अधिकार है।’ इस पर अचानक वहां खड़े अधिकतर पुरुष बिना किसी मतभेद के एक हो गए। वे भी जिन्हें इस प्रसंग के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था। हमारे खुल कर जवाब देने पर उनका गुस्सा और बढ़ गया।एक पुरुष ने कहा कि जब हक मांगने की बात आती है, तब तो लड़कियां कुछ बोलती नहीं हैं और यहां हक की बात कर रही हैं। उसके सुर में सुर मिलाते हुए दूसरे ने कहा कि जब लड़कियों के लिए पहले ही एक कोच दिल्ली मेट्रो ने आरक्षित कर दिया है तो ये यहां आती ही क्यों हैं। उसका यह कहना था कि बाकी सब खिलखिला पड़े। हमारे सब्र का बांध टूट चुका था। हमने कहा कि ये कम्पार्टमेंट भी हमारा ही है और हम तो यहीं रहेंगे। ऐसा लगा कि वे कह रहे हों कि इस पृथ्वी पर तमाम चीजों की तरह हमने तुम्हारे लिए भी एक कोना आरक्षित कर रखा है, वहीं पड़ी रहो। हमारे पुरुष मित्रों के हस्तक्षेप करने और उन्हें पुलिस का खौफ दिखाने पर वे खामोश हुए और एक-एक कर वहां से चलते बने। क्या यही वह कोना है जिसके लिए हम स्त्रियां इतनी सदियों तक संघर्ष करती रही हैं? मेट्रो के स्त्रियों के आरक्षित डिब्बे को एक ही रखा गया है, चाहे मेट्रो चार कोच की हो छह की या फिर आठ की। ऐसा क्यों? क्या यह इंगित नहीं करता कि मेट्रो अभी भी एक तरह से पुरुषों के लिए ही है? स्त्रियों को जितना दे दिया गया है, वह उनकी ‘उदारता’ का प्रमाण है! पृथ्वी के कोने की तरह यहां भी हमारा हिस्सा तय कर दिया गया है।
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