Monday, 11 August 2014 11:32 |
जनसत्ता 11 अगस्त, 2014 : आइएसआइएस, जिसने अपना नाम बाद में आइएस कर लिया, की जेहादी लड़ाई ने पिछले कुछ महीनों से इराक के सामने अपूर्व संकट पैदा किया है। सुन्नी उग्रवादियों के इस संगठन ने जहां इराक को विभाजन के कगार पर ला खड़ा किया है वहीं अल्पसंख्यक समुदायों और दूसरे देशों के वहां फंसे नागरिकों की जान पर भी बन आई है। इस परिस्थिति से निपटने में इराक सरकार की अक्षमता किसी से छिपी नहीं है। यों अमेरिका इराक सरकार को लगातार मदद करता रहा है, इसके बावजूद हालात बिगड़ते गए। फिर, आइएस के तार अल कायदा से जुड़े होने और स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के प्रति उसके बर्बर व्यवहार के कारण पहले से ही उसे विश्व-जनमत एक खतरनाक शक्ति के रूप में देखता रहा है। ऐसे में यह हैरत की बात नहीं कि अमेरिकी सैन्य कार्रवाई की आलोचना नहीं हुई, जैसी सद्दाम हुसैन के समय किए गए हमले को लेकर हुई थी। यह सवाल उठ सकता है कि इराक की हालत का अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा से कोई लेना-देना नहीं है। पर राष्ट्रपति ओबामा ने अपनी वायु सेना को आइएस के खिलाफ लक्षित कार्रवाई का आदेश तब दिया जब एक मानवीय संकट नजर आने लगा। आइएस ने यजीदी, ईसाई और अन्य अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने का इरादा जाहिर कर दिया था। इन समुदायों के लोग खासकर उत्तरी इराक के वासी हैं, जो अब आइएस के कब्जे में है।
खौफ के मारे ये लोग सिंजार कस्बे की पहाड़ियों पर भागने को मजबूर हो गए। जब आइएस के लड़ाकों ने स्वायत्त कुर्द क्षेत्र पर भी धावा बोल दिया और कुर्द सुरक्षा बलों को पीछे हटने को मजबूर करते हुए कुर्दिस्तान की राजधानी इरबिल के करीब तक पहुंच गए, तो जनसंहार की आशंका जताई जाने लगी। इस सब का हवाला देते हुए ओबामा ने जिस आदेश को मंजूरी दी उसे उन्होंने मानवीय सहायता का कदम कहा है। संकट में फंसे लोगों के लिए अमेरिकी वायु सेना ने भोजन और पानी के पैकेट गिराए। ओबामा ने यह भी कहा है कि इराक के संकट का कोई सैन्य समाधान नहीं हो सकता, समाधान यही है कि इराक की शासन-व्यवस्था में सभी समुदायों का प्रतिनिधित्व
सुनिश्चित हो। ऐसा न होने से ही सुन्नियों में असंतोष पनपा, जिसका फायदा अबू बक्र अल बगदादी की अगुआई वाला जिहादी उठा रहा है। वर्ष 2011 में अमेरिकी सेना की वापसी से पहले आठ साल तक इराक पर अमेरिका का प्रत्यक्ष नियंत्रण रहा। वहां चुनाव से लेकर नई शासन-व्यवस्था के आकार लेने तक सब कुछ उसकी देख-रेख में हुआ, पर इराक व्यवस्थित राष्ट्र के रूप में उभरने के बजाय आंतरिक विभाजन और हिंसा की चपेट में नजर आने लगा। क्या इसकी जवाबदेही से अमेरिका पल्ला झाड़ सकता है? इराक की मौजूदा हालत के लिए प्रधानमंत्री नूर अल-मालिकी कम जिम्मेवार नहीं हैं। तमाम आग्रहों के बावजूद उन्होंने सुन्नियों को शासन व्यवस्था में पर्याप्त हिस्सेदारी देने की बात नहीं मानी। इराक के सर्वोच्च शिया धर्मगुरु अयातुल्ला अली अल-सिस्तानी ने तो देश के समूचे राजनीतिक वर्ग को कठघरे में खड़ा किया है जो छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए आपस में लड़ते रहे हैं। बहरहाल, ओबामा ने कहा है कि अमेरिकी सेना जमीन पर नहीं उतरेगी, सैन्य हमले आइएस के ठिकानों तक सीमित रहेंगे। लेकिन आइएस के लड़ाके छापामार लड़ाई की तरकीब अपना सकते हैं। तब उनसे कौन कैसे निपटेगा? संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर दुनिया भर की सरकारों से मौजूदा संकट में इराक की मदद करने की अपील की है। मगर इसका तौर-तरीका क्या हो इसके बारे में प्रस्ताव में कुछ नहीं कहा गया है। संयुक्त राष्ट्र को इसके बारे में सोचना चाहिए। सब कुछ अमेरिका पर क्यों छोड़ा जाए!
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