दीपक मशाल जनसत्ता 11 अगस्त, 2014 : अवसर का लाभ उठाना हमेशा से सफल व्यक्तियों के जीवन का मंत्र रहा है और अवसर के अकाल के समय में भी अपने लिए अवसर के बादलों की बारिश करा लेना प्रतिभाशालियों की पहचान। खासकर बाजार के खिलाड़ी यह बात भली-भांति समझते हैं और इस सबके भी उनके कुछ कायदे-कानून होते होंगे। लेकिन इन्हीं के बीच कुछ ऐसे भी ‘भद्र व्यक्ति’ हैं, जिन्हें दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिए लोगों की दुखती रग को छेड़ने या जख्म पर बनी ताजी पपड़ी को उमेचने से भी एतराज नहीं होता। एक ताजा उदाहरण है निर्भया बलात्कार कांड पर आधारित मॉडलिंग फोटोशूट का। जिस घटना को देख-सुन कर सारी दुनिया दर्द से तड़प उठी, जिसकी वजह से भारत शर्मसार हुआ, उसे बीते अभी दो साल भी नहीं हुए कि एक गुमनाम फोटोग्राफर ने उसमें दौलत और शोहरत का जरिया ढूंढ़ लिया। आश्चर्य का विषय है कि कैमरे के लिए खिलखिलाकर उस सबको दोहराते हुए न उपलब्ध पुरुष मॉडलों की संवेदना जागी और न ही उस महिला मॉडल की अंतरात्मा ने उसे धिक्कारा। निश्चित है कि सभी की आंखों पर सिक्कों की चमक और कानों पर खनक हावी रही होगी। इस बारे में उनके तर्क भी देखिए कि इस सबके द्वारा वे ‘भारत में महिलाओं की स्थिति दर्शा रहे थे।’ अगर सच में वे महिलाओं की दयनीय दशा के लिए इतने चिंतित थे तो क्यों नहीं उनका मनोबल बढ़ाने वाली या समस्या का एक हल सुझाने वाली तस्वीरें निकाली गर्इं? क्यों नहीं लड़की द्वारा अकेले ही कराटे के वार से चारों बदमाशों को चित करने की तस्वीरें या सैंडल उतार कर किसी हमलावर की आंख पर प्रहार कर उसे असहाय कर देने या फिर मिर्च वाले स्प्रे का इस्तेमाल करते हुए उन्हें सबक सिखाने की तस्वीरें निकाली गर्इं? जिस जघन्यतम अपराध को रोकने की चुनौती देश के सामने पहले ही खड़ी है, उसे फिर से इस फोटोशूट के रूप में सवाल का नाम देने या देखे हुए को फिर आईना दिखाने का औचित्य क्या था? क्या इसके द्वारा उन महानुभावों द्वारा सस्ते नाम कमाने की मंशा जाहिर नहीं होती? पर संवेदना के इस क्षरण के लिए सिर्फ उन्हें ही अपराधी क्यों माना जाए! दोषी तो हम भी बराबर के ही हैं। मुझे याद है कि उस हृदयविदारक घटना के कुछ दिनों बाद ही हमारे ‘फनलविंग’ किशोर-किशोरियों ने एक भौंडे और लगभग गुमनाम गायक द्वारा गाए गए बलात्कार पर आधारित और अश्लीलतम शब्दों से सुसज्जित एक गाने को अपना लिया था। कुछ कोनों से उसके विरोध में हलकी आवाजें उठीं जरूर थीं, लेकिन वे भाड़ में अकेले चने से ज्यादा सामर्थ्य रखने वाली कतई न थीं। आज जब वह
सुरविहीन गायक देश के बहुत सारे बच्चों का चहेता और बॉलीवुड के सुपरस्टारों की आंख का तारा बना हुआ है तो किसी दूसरे द्वारा भी आसानी से यह सब पाने की ख्वाहिश के साथ उन पूर्वस्थापित पदचिह्नों का अनुसरण करने पर इतनी हायतौबा क्यों? फिर यह बात तो जगजाहिर है कि मायानगरी के उस उद्योग में रुपया-पैसा ही सभ्यता है और वही संस्कृति।ये नए लोग भी जानते हैं कि जब उस गायक का कुछ न हुआ, जब दाऊद को नायक जता कर फिल्म बनाने वाले और 26/11 में भी कहानी ढूंढ़ कर उससे लाभ कमाने वाले निर्माता-निर्देशकों को कला के आंचल में पनाह मिल गई तो ऐसा ही रास्ता वे भी अख्तियार कर लेंगे और इस शॉर्टकट की मदद से कुछ नहीं तो किसी बदनाम रियलिटी शो में प्रवेश पा ही जाएंगे। आखिर यह सब जानते-समझते हुए भी क्यों नहीं हम इन सबका बहिष्कार कर पाते? क्यों इनके खिलाफ अपनी आवाज को दमदार नहीं बना पाते? काश कि न सिर्फ इसके, बल्कि हर अव्यवस्था के खिलाफ हम एकजुट हो सकें! आज दुनिया के किसी भी देश में जब वहां के किसी दोस्त से बात होती है तो कहीं न कहीं वह अपनी बातों में निर्भया कांड का जिक्र करके आज के भारत के हालात को कुरेदने की कोशिश जरूर करता है। ऐसा भी नहीं कि उनके देशों में कोई ऐसी कमी न हो, जिनके बारे में हम और वे बात न कर सकें। पर ऐसी स्थितियों में सिर उनके ज्यादा शर्म से झुकते हैं, जिनके इतिहास वर्तमान के बिल्कुल उलट तस्वीर टांगे हुए हों। हालांकि भारत की छवि हाथी के ऊपर रखे हौदों पर बैठे राजा-महाराजाओं की सवारियों या बांस की डलिया में फन फैलाए बैठे सांप को बीन पर नचाते सपेरे से बदलने की कोशिश तो हम सभी की है, लेकिन स्थानापन्न के रूप में कम से कम इस नई छवि के बारे में तो निश्चित ही हममें से किसी ने नहीं सोचा होगा।
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