प्रदीप कुमार जनसत्ता 8 अगस्त, 2014 : हम जैसों का वास्ता दो ही प्राण से पड़ा। एक तो बेहद डराने वाले बॉलीवुड के कलाकार प्राण और दूसरे जी भर कर हंसाने वाले कार्टूनिस्ट प्राण। अब दोनों की यादें रह गई हैं। हालांकि कमोबेश समकालीन रहे दोनों प्राण अपनी प्रतिबद्धता और समर्पण से उस मुकाम तक पहुंचे जहां से वे हम जैसों के दिलों से आसानी से नहीं जाएंगे। कार्टूनिस्ट प्राण की प्रतिबद्धता का अंदाजा इससे होता है कि कैंसर से पीड़ित होने के बाद भी अंतिम समय तक वे अपना काम कर रहे थे। अस्पताल में भर्ती कराए जाने तक कार्टून बनाने का सिलसिला जारी रहा। अपने बाद भी अपने दायित्वों को निभाने का जतन विरले ही कर पाते हैं। कॉमिक्स की दुनिया में प्राण का सबसे अहम योगदान यह है कि उन्होंने भारतीय पृष्ठभूमि वाले चरित्रों को गढ़ा। चाहे वह चाचा चौधरी का किरदार हो या फिर साबू, बिल्लू, पिंकी, श्रीमतीजी या रमण का। इन किरदारों ने हमें रहस्य और रोमांच की जटिलताओं से ही परिचित नहीं कराया, बल्कि ये हमेशा अपने आसपास की दुनिया को संबोधित करते, सहज भाव से गुदगुदाते नजर आए। भारत में प्राण के किरदारों से पहले भी कॉमिक्स थे। अंग्रेजी के तमाम कॉमिक्स के अलावा फैंटम और मैंड्रेक जैसी शृंखला पश्चिमी दुनिया के कार्टूनों के हिंदी अनुवाद थे। वे दिलचस्प जरूर लगते थे, लेकिन एकदम अपने नहीं। ऐसे में प्राण ने एक के बाद एक ऐसे किरदार गढ़े जो अपने थे। बतौर कार्टूनिस्ट प्राण न केवल इन किरदारों को आम लोगों और खासकर बच्चों से जोड़ने में कामयाब हुए, बल्कि इन कॉमिक्सों को बाजार में भी कामयाब बनाया और तीन दशक से भी ज्यादा समय तक वे लोकप्रिय बने रहे। यह संभव हुआ क्योंकि वे समाज की नब्ज को पकड़ते रहे और अपने चरित्रों को मौलिकता के साथ सरल हास्य शैली में गूंथते रहे। चाचा चौधरी के किरदार के रूप में प्राण का हीरो ऐसा है जो गंजा है, बुड्ढा भी। छड़ी के बिना ज्यादा चल नहीं सकता। पत्नी से डरता भी है। अपना समाज ऐसे लोगों को हीरो नहीं बनाता। लेकिन प्राण ने बनाया और कहा कि मेरा हीरो इसलिए हीरो है कि उसका दिमाग कंप्यूटर से भी तेज चलता है। इस एक सोच ने करोड़ों बालमन पर कैसा प्रभाव डाला होगा, इसका महज अंदाजा लगाया जा सकता है। चाचा चौधरी का किरदार न केवल हमें हंसाता-गुदगुदाता रहा है, बल्कि खूबसूरती के पैमाने पर कमतर (जो ज्यादातर भारतीय बच्चे होते ही हैं) माने जाने वाले बच्चों के आत्मविश्वास को अनजाने में कई गुणा बढ़ाता भी रहा। चाचा चौधरी के दिमाग के इस्तेमाल से मुश्किलों का हल निकालने की शैली ने न जाने कितने बच्चों को दिमाग
पर जोर डालना सिखाया। साबू ने बालमन को बुराई के खिलाफ लड़ने का जज्बा दिया। बिल्लू और पिंकी ने अपने दोस्तों की मदद करने के ढेरों गुर सिखाए। इन सबसे बढ़ कर प्राण ने बच्चों में पढ़ने की दिलचस्पी पैदा की। उनके गढ़े चरित्रों ने पढ़ने के संस्कार को विकसित किया।यही नहीं, प्राण के कॉमिक्स ने हमें दुनियादारी भी सिखाई। बचत का पहला ककहरा मैंने तो कॉमिक्स खरीदने के लिए सीखा था। चवन्नी और आठ आने मिल कर कब पांच रुपए पूरे हों और कॉमिक्स खरीद पाऊं, यह सिलसिला सालों तक चलता रहा। कॉमिक्स के चलते दोस्त बने और टूटे भी। जिस बच्चे के पास ज्यादा कॉमिक्स होती, उससे दोस्ती गांठने की हरसंभव कोशिश होती थी। अदला-बदली का पहला पाठ भी कॉमिक्स ने ही सिखाया। कॉमिक्स लाइब्रेरी में घंटे भर की देरी से कॉमिक्स जमा करने पर पूरे दिन का जुर्माना देना होता था तो समय से पहले पुस्तक लौटाने की आदत भी इन्हीं कॉमिक्सों से पड़ी। कुछ बुरी बातें भी सीखीं और कई बार घर के पैसे चुरा कर कॉमिक्स खरीदी और पिटाई भी खाई। हालांकि तब राज कामिक्स और मनोज कॉमिक्स के किरदारों का भी जादू था। लेकिन जो बात प्राण के किरदारों में थी, वह दूसरी जगह नहीं थी, क्योंकि उनमें हिंसा नहीं होती थी। प्राण के कॉमिक्सों में बंदूक और कारों की जगह खेल का मैदान और दोस्तों का साथ होता था। उनके कल्पना लोक का सच हमारी तर्कशीलता को कुंद नहीं करता था। हर चीज का एक दौर होता है। टेलीविजन आने के बाद कॉमिक्स की दुनिया सिमटने लगी। चौबीस घंटे के कार्टून चैनलों की दुनिया में कॉमिक्स बहुत पीछे रह गया। क्या यह अजीब संयोग नहीं है कि समाज में नैतिकता के मूल्य भी घटते चले गए और बच्चों के हिंसक होने का चलन बढ़ गया? अब तो बच्चों के लिए हंसना भी मुश्किल होता जा रहा है। जब-जब इन समस्याओं की ओर हमारा ध्यान जाएगा, प्राण जरूर याद आएंगे।
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