यशवंत कोठारी जनसत्ता 31 जुलाई, 2014 : सरकार है तो सलाहकार भी है। ऐसी किसी सरकार की कल्पना नहीं की जा सकती है, जिसके पास सलाहकार नहीं हो। किसी ने ठीक ही कहा है सलाह मुफ्त और बिना मांगे मिलती है। सलाहकार अगर सरकारी हो, तो क्या कहने! वह सरकार को हर काम के लिए सलाह देने को तत्पर रहता है। लेकिन आमतौर पर हम नहीं सोचते हैं कि कितने प्रकार के सलाहकार हो सकते हैं। सरकार के पास आर्थिक सलाहकार की तरह राजनीतिक, रक्षा, मीडिया और सांस्कृतिक सलाहकार, यहां तक कि चिकित्सा और व्यायाम सलाहकार भी होते हैं। ये सभी सरकार को विभिन्न विषयों पर सलाह देते रहते हैं। कई बार इस तरह की सलाहें एक दूसरे के विपरीत भी होती हैं। किसी आर्थिक सलाह को राजनीतिक सलाहकार काट देता है और राजनीतिक सलाह या राय को मीडिया सलाहकार जनता में गलत संदेश चले जाने के नाम से अस्वीकृत कर देता है। सलाह देने वाले चैन की बांसुरी बजाने लग जाते हैं और सरकार की जान सांसत में पड़ जाती है। लगभग सभी सलाहकार चिंतक, दार्शनिक, बुद्धिजीवी की छवि वाले होते हैं। ये महंगी शराब, महंगे चश्मे, फटी जींस, बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ घूमते मिल सकते हैं। चिंतक या दार्शनिक मुद्रा के कारण आम जनता इन सलाहकारों से दूर ही रहती है। कभी-कभार ये जनता की सलाह पर बदल दिए जाते हैं। दरअसल, सलाहकार असंपादित फिल्मी अंश की तरह होते हैं जो कभी भी रद्दी की टोकरी की शोभा बढ़ा सकते हैं। सलाहकार समितियों में विशेषज्ञ और सरकारी अधिकारी होते हैं जो हर सलाह को नियमों के विपरीत बता देते हैं। मुझे एक सलाहकार ने बताया कि राज्य सरकारों में उपसचिव और केंद्र सरकार में संयुक्त सचिव विकास और योजनाओं में सबसे बड़ा रोड़ा होता है, जबकि सचिवों का मानना है कि जो काम नहीं करना हो उसे सलाहकार समितियों के हवाले कर दें। सब गुड़ गोबर हो जाएगा। सलाहकार चिंतक की मुद्रा में सरकार के पास जाता है और अपनी स्वयंसेवी संस्था की रपट के आधार पर अनुदान मांगता है। वह अनुदान के आधार पर सलाह देता है। चुनाव और संक्रमणकाल में सलाहकारों का महत्त्व बहुत बढ़ जाता है। हर सलाहकार मानता है कि उसी की सलाह से चुनाव जीता जा सकता है। मगर चुनाव के परिणाम आते ही सब टांय-टांय फिस्स हो जाता है। जब सरकार संकट में होती है तो सलाहकार संकट से उबारने के रास्ते बताता है। मगर सरकार उन सलाहों से शायद ही कभी संकट से उबर पाती है। कुल मिला कर सलाहकार एक जलसा-घर बनाते हैं और उसमें रम जाते हैं। सलाहकार विशेषज्ञ होते हैं
और सरकार को विषय की जानकारी देते हैं। मगर यह जानकारी सरकारी फाइलों, आकड़ों की समझ में नहीं आती। श्रेष्ठतम सलाह के आधार पर बनी श्रेष्ठ योजना भी सरकारी मकड़जाल में फंस कर रह जाती है।आज स्थिति यह है कि सरकारी जलसा-घर में प्रेमचंद के बजाय चेतन भगतों का बोलबाला है। सरकार को ग़ालिब नहीं, यों ही खानापूर्ति करने वाला कोई और चाहिए। सरकारी सलाहकार बनने के लिए विद्वान, चिंतक, दार्शनिक होना काफी नहीं है। आपके पास राजनीतिक आकाओं से जुड़े होने का प्रमाण पत्र भी चाहिए। आपके पास एक विचार नहीं, विचारधारा का मुखौटा और एक प्रभामंडल होना चाहिए, जिसकी चमक-दमक में आपका चेहरा सरकार को नजर आए। सलाहकार कड़वे सत्य को भी नकार सकता है और आवरणयुक्त झूठ को सत्य बता कर परोस सकता है। जब रोम जल रहा था तो नीरो के साथ उसके सलाहकार भी बांसुरी बजा रहे थे। सत्ता के आसपास मंडराने वाले कुछ सलाहकार राजधानी के गलियारों में सत्ता की वकालत करते रहते हैं। यों भी, सलाहकार ‘चेंबर पै्रक्टिस’ करने में विश्वास रखते हैं। सलाहकारों की सलाहें ‘अंधों के हाथी’ की तरह होती हैं, जिसे अलग-अलग तरह से देखा, समझा जा सकता है। कुछ सलाहकार हर सरकार को सलाह देने की हिम्मत रखते हैं, चाहे सरकार का कुछ भी हो। इतिहास गवाह है कि कई सल्तनतें केवल गलत सलाहों के कारण डूब गर्इं। किसी के मन में यह सवाल आ सकता है कि सरकारों को सलाहकारों की जरूरत क्यों पड़ती है! तो भाई साहब, सत्ता के ताबूत में आखिरी कील जड़ने वाले भी तो चाहिए! यह काम कुछ लोग अच्छी तरह से कर लेते हैं। मगर प्रजातंत्र हर बार मजबूत होता है, क्योंकि वोट देने वाला किसी सलाह पर विश्वास नहीं करता। वह तो अपने मन की मर्जी का मालिक है। खैर, मेरे फोन की घंटी बजती है तो मैं सोचता हूं कि शायद किसी को मेरी सलाह की जरूरत है।
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