जनसत्ता 30 जुलाई, 2014 : उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयके जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को बदलने की पहल यूपीए सरकार के समय हुई थी, लेकिन संबंधित विधेयक कानून की शक्ल नहीं ले सका। अब मोदी सरकार ने न्यायिक नियुक्ति आयोग गठित करने का इरादा जताया है। अच्छी बात है कि उसने इस बारे में न्यायविदों की राय लेना जरूरी समझा। विधिमंत्री रविशंकर प्रसाद की तरफ से बुलाई गई बैठक में तमाम न्यायविदों ने इस पर सहमति जताई कि कॉलिजियम प्रणाली की जगह वैकल्पिक व्यवस्था की जानी चाहिए, पर यह भी कहा कि जो भी नई व्यवस्था बने उसमें निर्णायक भागीदारी न्यायपालिका के ही सदस्यों की रहनी चाहिए। इससे दो बातें साफ हैं। एक यह कि वे कॉलिजियम प्रणाली को पूर्ण रूप से उपयुक्त नहीं मानते। दूसरे, उन्हें यह अंदेशा भी है कि इस प्रणाली को बदलने के नाम पर जजों की नियुक्ति में कहीं कार्यपालिका की दखलंदाजी का रास्ता न खुल जाए। वर्ष 1993 से पहले उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति के पास था, यानी व्यवहार में सरकार ही उनका चयन करती थी। लेकिन 1993 में सर्वोच्च न्यायालय के नौ जजों के एक खंडपीठ ने राष्ट्रपति या कार्यपालिका से यह अधिकार अपने हाथ में लेने की शुरुआत कर दी। फिर 1998 में इतने ही जजों के खंडपीठ ने राष्ट्रपति के एक संदर्भ-पत्र के जवाब में इसका खाका भी तय कर दिया, यानी प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता में वरिष्ठतम जजों का कॉलिजियम होगा, जो नई नियुक्तियों के लिए सरकार से नामों की सिफारिश करेगा।
सरकार को यह विकल्प जरूर दिया गया कि वह चाहे तो किसी नाम को खारिज कर दे। मगर कॉलिजियम दोबारा उस नाम को प्रस्तावित करे तो उसे स्वीकार करना सरकार के लिए बाध्यकारी होगा। पिछले सोलह वर्षों से यही व्यवस्था चल रही है। इसकी आलोचना दो-तीन बिंदुओं से होती रही है। एक यह कि जज ही जजों को नियुक्त करें ऐसा प्रावधान संविधान में नहीं है, बल्कि सर्वोच्च अदालत ने अपने दो फैसलों के जरिए ही यह हक हासिल कर लिया। दूसरे, कॉलिजियम प्रणाली में पारदर्शिता की कमी है। तीसरे, इसके पक्ष में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का जो तर्क दिया जाता रहा है, वह कई बार खरा नहीं उतरा है। ताजा उदाहरण
न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू के खुलासे का है, जो यह बताता है कि भ्रष्टाचार के आरोप सही पाए जाने के बावजूद मद्रास हाइकोर्ट के एक अतिरिक्त जज को न केवल सेवा-विस्तार मिल गया बल्कि पदोन्नत भी कर दिया गया। कॉलिजियम के सरकार के दबाव में आए बगैर यह नहीं हो सकता था। बहरहाल, कॉलिजियम प्रणाली की विदाई तय लग रही है। पर देखना होगा कि प्रस्तावित नियुक्ति आयोग पारदर्शिता और न्यायपालिका की स्वतंत्रता, दोनों तकाजों को पूरा करने वाला हो। इस संबंध में विधि आयोग के अध्यक्ष एपी शाह ने जो सुझाव दिए हैं उन्हें सरकार को गंभीरता से लेना चाहिए। न्यायमूर्ति शाह का मानना है कि प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता में बनने वाले आयोग में न्यायपालिका के सदस्यों की ही प्रधानता रहे; इसमें कार्यपालिका का प्रतिनिधित्व सिर्फ विधिमंत्री करें। आयोग तदर्थ ढंग से नहीं बल्कि स्थायी रूप से काम करे। उसे संवैधानिक आधार दिया जाए, यानी संसद से बिना संविधान संशोधन विधेयक पारित किए आयोग के स्वरूप में फेरबदल करना संभव न रहे। ये सिफारिशें मोटे तौर पर यूपीए सरकार के समय बने विधेयक के प्रावधानों जैसी हैं, कोई फर्क है तो यही कि न्यायमूर्ति शाह ने आयोग में तीन की जगह चार जज रखने और लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को शामिल करने का सुझाव दिया है। सरकार कांग्रेस को लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष का पद देने को तैयार नहीं है। पर विधि आयोग की सिफारिशों से भी जाहिर है कि अहम नियुक्तियों में निष्पक्षता की गारंटी के लिए विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी को यह भूमिका दी जानी चाहिए।
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