Monday, 28 July 2014 12:21 |
जनसत्ता 28 जुलाई, 2014 : संघ लोक सेवा आयोग की नई परीक्षा पद्धति के विरोध में बीते शुक्रवार को दिल्ली में फिर हजारों छात्र सड़कों पर उतर आए। संसद का घेराव करने जा रहे इन छात्रों को पुलिस के दमन का शिकार होना पड़ा। लेकिन विरोध-प्रदर्शन का यह असर जरूर हुआ कि संसद के दोनों सदनों में उनके मुद््दे पर चर्चा हुई और सरकार को बचाव की मुद्रा में आना पड़ा। कार्मिक राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि सरकार ने शिकायतों की जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की है, जो एक हफ्ते के भीतर अपनी रिपोर्ट दे देगी। इसी के साथ उन्होंने भरोसा दिलाया कि किसी भी भाषा के साथ भेदभाव नहीं होने दिया जाएगा। यह पहला मौका नहीं है जब सिविल सेवा परीक्षा में किए बदलावों के खिलाफ छात्रों का आक्रोश फूटा हो। पिछले महीने भी हजारों की तादाद में वे सड़कों पर उतरे थे और प्रधानमंत्री से मिलने की कोशिश में उन्हें पुलिस की लाठियां खानी पड़ी थीं। तब भी कार्मिक राज्यमंत्री ने जल्द उनकी शिकायतें दूर करने का वादा किया था। अब वे समिति की रिपोर्ट आने का इंतजार करने को कह रहे हैं। इस बीच सरकार या समिति ने क्या किया? जबकि यूपीएससी ने अगली परीक्षा के लिए प्रवेशपत्र जारी करना शुरू कर दिया। इससे विद्यार्थियों का गुस्सा फूटना ही था। सरकार का कहना है कि आयोग अपने कैलेंडर के मुताबिक काम कर रहा है। पर सवाल है कि मंत्री महोदय ने पिछले महीने जो आश्वासन दिया था उसका क्या हुआ। यह सही है कि यूपीएससी एक संवैधानिक और स्वायत्त संस्था है और उसकी स्वायत्तता का सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि आयोग अपने बनाए नियमों पर पुनर्विचार नहीं कर सकता, जबकि उनको लेकर खासा विवाद खड़ा हो गया हो। सिविल सेवा परीक्षा की नई पद्धति के खिलाफ फैली नाराजगी की वजह यह है कि हिंदी समेत भारतीय भाषाओं को माध्यम चुनने वाले अभ्यर्थियों के प्रति वह भेदभाव से भरी हुई है। भाषाई अन्याय के साथ वर्ग-भेद का भी मामला है, क्योंकि जब से यह परीक्षा
पद्धति लागू हुई है, अंगरेजी को छोड़ कर अन्य भाषाओं के अभ्यर्थियों के सफल होने की संख्या तो तेजी से घटी ही है, ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वाले विद्यार्थी भी खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। गद्यांश आधारित प्रश्नों के अंगरेजी से किए गए अनुवाद ने भी समस्या बढ़ाई है; ये विचित्र ढंग से अनूदित किए गए प्रश्न ऐसी दुरूह हिंदी में होते हैं जो किसी के पल्ले नहीं पड़ते। इन शिकायतों को यह कह कर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि ये विद्यार्थी कड़ी मेहनत करने के लिए तैयार नहीं हैं। आखिर उनकी सफलता की दर वर्ष 2011 से पहले क्यों संतोषजनक थी, और परीक्षा पद्धति बदलने के साथ ही वह क्यों तेजी से लुढ़कती चली गई? नई परीक्षा पद्धति की पैरवी करने वालों की दलील है कि आज के समय में नौकरशाही में जाने के इच्छुक लोगों को अंगरेजी, कंप्यूटर, गणित आदि का ज्ञान होना ही चाहिए। पर यही बात भारतीय भाषाओं, अपने समाज और संस्कृति की बाबत ज्ञान को लेकर भी कही जा सकती है। असल सवाल संतुलन बिठाने का है। सिविल सेवा परीक्षा के तौर-तरीकों में कई बार बदलाव हुए हैं और आगे भी किए जा सकते हैं। पर ये परिवर्तन ऐसे नहीं होने चाहिए कि एक खास पृष्ठभूमि से आने वालों के प्रति पक्षपात की मंशा से किए गए जान पड़ें।
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