कमल किशोर गोयनका जनसत्ता 27 जुलाई, 2014 : प्रेमचंद जैसे कालजयी लेखक को लेकर कई बार बड़ी अराजकता और अज्ञानता की स्थिति नजर आती है और यह लगता है कि हमारे लेखक-आलोचक, अकादमियों-संस्थाओं के निदेशक, संपादक और प्रोफेसर प्रेमचंद के संबंध में कुछ भी झूठ-सच लिखने-समझने और प्रकाशित करने के लिए अधिकारी हैं। मालूम नहीं, ऐसे विद्वान हिंदी में ही क्यों हैं और शेक्सपियर, टालस्टाय, रवींद्रनाथ ठाकुर आदि को लेकर ऐसी अप्रामाणिक और असत्य बातें प्रकाश में क्यों नहीं आतीं? मदन गोपाल, अमृतराय, जाफ़र रज़ा, इन पंक्तियों के लेखक आदि ने जो साठ-सत्तर वर्षों की खोज-खबर से प्रेमचंद के जीवन, साहित्य और विचार के संबंध में जो प्रामाणिक तथ्यों, प्रमाणों और नवीन सूचनाओं का पहाड़-सा बना दिया है, उसको देखने-पढ़ने-समझने और उसका सदुपयोग करने के प्रति इन हिंदी विद्वानों की कोई उत्सुकता और जिज्ञासा नहीं दिखाई देती और जो जिसके मन में आता है, बिना तथ्यों की खोज के झूठा-सच्चा लिख देता है और झूठी शान मारने के लिए प्रकाशित भी कर देता है। प्रेमचंद को लेकर यह स्थिति बहुत ही घातक है, क्योंकि इससे वास्तविक प्रेमचंद पर धूल जमने लगती है और एक बनावटी-नकली मूर्ति को स्थापित करके एक नई कृत्रिम मूर्ति को गढ़ने की चेष्टा की जाती है। इससे उन्हें एक नए प्रेमचंद को खोजने, एक नया शोध करने का गर्व अनुभव होता है, चाहे वह मिथ्या और कल्पित आधारों पर ही क्यों न टिका हो। भारतीय ज्ञानपीठ साहित्य की एक अनुपम प्रकाशन संस्था है। उसने यह यश साहित्य और शोध की श्रेष्ठ कृतियों के प्रकाशन और उच्च कोटि के साहित्यकारों को पुरस्कृत-सम्मानित करके प्राप्त की है। भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक- लक्ष्मीचंद जैन, बिशन टंडन आदि ने इस संस्था को पूर्वग्रहों से मुक्त होकर, इतनी ऊंचाइयों तक पहुंचाया कि कोई अन्य संस्था वहां तक पहुंचने में सफल नहीं हो पाई। बिशन टंडन ने अपने निदेशक-काल में प्रेमचंद के अप्राप्य एवं विलुप्त साहित्य की दो कृतियों को प्रकाशित किया- ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ (दो भाग, 1988) और ‘प्रेमचंद की हिंदी-उर्दू कहानियां’ (1990)। इन कृतियों का हिंदी संसार में बड़ा स्वागत हुआ और शायद ही कोई पत्रिका होगी जिसमें ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ पर कुछ न छपा हो। हिंदी साहित्य में यह पहली ऐसी कृति थी, जिसमें प्रेमचंद जैसे आधुनिक लेखक के लगभग बारह सौ पृष्ठों के अप्राप्य और विलुप्त साहित्य को खोज कर प्रस्तुत किया गया हो। यह संभवत: अतिशयोक्ति नहीं होगी कि विश्व-साहित्य के इतिहास में यह अपने प्रकार की पहली घटना थी और इसे प्रकाशित करने का श्रेय भारतीय ज्ञानपीठ को था। इसी ज्ञानपीठ ने प्रेमचंद के प्रथम उपन्यास के रूप में जब 2010 में ‘दुर्गादास’ का प्रकाशन किया और ‘नया ज्ञानोदय’ के मई, 2010 अंक में इसका विज्ञापन और ‘पुस्तक वार्ता’ के मई-जून, 2010 अंक में भवदेव पांडेय का लेख ‘प्रेमचंद का पहला उपन्यास: दुर्गादास’ प्रकाशित हुआ तो मेरी पहली प्रतिक्रिया थी कि प्रेमचंद पर लगभग चार दशकों तक काम करने पर भी मुझे यह जानकारी क्यों न थी, लेकिन जब मैंने पूरा विज्ञापन पढ़ा और इस प्रथम उपन्यास से प्रस्तुतिकर्ता भवदेव पांडेय का लेख पढ़ा तो स्पष्ट हो गया कि प्रेमचंद के जीवन में ऐसा हुआ ही नहीं तो उसकी जानकारी मुझे कैसे होती? ‘नया ज्ञानोदय’ के विज्ञापन में संपादक का दावा था कि ‘दुर्गादास’ प्रेमचंद का पहला उपन्यास है, प्रेमचंद ने इसका लेखन 1910 में किया और प्रकाशन 1914-15 में हुआ और यह भी कि प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित होने वाली पहली रचना ‘दुर्गादास’ ही थी। भवदेव पांडेय के लेख ‘प्रेमचंद का पहला उपन्यास: दुर्गादास’ में भी यही सब दावे हैं। पांडेयजी ने इस लेख में लिखा कि इस उपन्यास के लोग नाम तक नहीं जानते, इसे प्रेमचंद ने उर्दू में लिखा और प्रेमचंद के घनिष्ठ मित्र शंकधर ने इसका हिंदीकरण किया और प्रकाशन पर पुस्तक में न प्रकाशक का नाम छपा और न भूमिका में लेखन की तिथि ही लिखी। अफसोस कि भारतीय ज्ञानपीठ ने इन दावों की प्रामाणिकता जांचने का कोई प्रयास नहीं किया और खुद भी भवदेव पांडेय के झूठे तथ्यों के समर्थक बन गए। पहला
दावा यह है कि ‘दुर्गादास’ प्रेमचंद का पहला उपन्यास है। दोनों में से किसी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि यह उर्दू का या हिंदी का पहला उपन्यास है, पर सच यह है कि यह उर्दू-हिंदी में से किसी का पहला उपन्यास नहीं है। उर्दू में 1915 से पहले ‘असरारे मआबिद’ उर्फ ‘देवस्थान रहस्य’ (1903-05), ‘किशना’ (1906), ‘हमखुर्मा व हमसवाब’, ‘रूठी रानी’, ‘जलवए ईसार’ उपन्यास छप चुके थे और हिंदी में ‘प्रेमा’ (1907) प्रकाशित हो चुका था। इसलिए ‘दुर्गादास’ को प्रेमचंद का पहला उपन्यास घोषित करना तथ्यों और साक्ष्यों के एकदम विपरीत है। भवदेव पांडेय यह भी लिखते हैं कि ‘दुर्गादास’ का पहली बार प्रकाशन 1914-15 में हुआ था, पर इसका कोई प्रमाण उनके पास नहीं है। भारतीय ज्ञानपीठ और भवदेव पांडेय का यह दावा सच नहीं है कि ‘दुर्गादास’ प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित होने वाली पहली रचना थी। हिंदी संसार जानता है कि ‘सोज़ेवतन’ की जब्ती के कारण प्रेमचंद ने ‘नवाबराय’ नाम का त्याग करके प्रेमचंद नाम ग्रहण किया था और प्रेमचंद नाम से प्रकाशित होने वाली उनकी पहली रचना ‘बड़े घर की बेटी’ थी, जो ‘ज़माना’ के दिसंबर, 1910 के अंक में उर्दू में छपी थी। भारतीय ज्ञानपीठ और भवदेव पांडेय का यह दावा भी झूठा है कि हिंदी संसार ‘दुर्गादास’ के नाम से परिचित नहीं था और ‘दुर्गादास’ कभी सामने नहीं आया। असल में, ‘दुर्गादास’ एक बाल उपन्यास है, उपन्यास नहीं है और हिंदी में इसका पहला संस्करण 1938 में प्रकाशित हुआ था। ‘दुर्गादास’ नामक बाल-उपन्यास के पहले संस्करण की एक प्रति मेरे पास है और वह चित्रात्मक है तथा इस पर प्रेस का नाम है- सरस्वती प्रेस, बनारस, प्रथम संस्करण 1938। इसका विवरण तथा चित्र ‘प्रेमचंद विश्वकोश’, भाग: 2, पृष्ठ 194-96 पर छपा है और इसकी प्रेमचंद की लिखी भूमिका ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ भाग: 2, पृष्ठ 374 पर संकलित है। इसलिए भारतीय ज्ञानपीठ का यह दावा भी असत्य है कि हिंदी संसार ‘दुर्गादास’ के नाम से ही अनभिज्ञ था। ‘प्रेमचंद: बाल-साहित्य समग्र’ (2002) में ‘दुर्गादास’, पृष्ठ 173-210 तक संकलित है। मैं इससे बड़ा आहत हुआ कि जिस भारतीय ज्ञानपीठ ने 1988 और 1990 में प्रेमचंद के सैकड़ों पृष्ठों के दुर्लभ और अप्राप्य साहित्य को प्रकाशित किया था, वही भारतीय ज्ञानपीठ पूरी तरह झूठे दावों के साथ प्रेमचंद की कृति को प्रकाशित करके उनकी मूर्ति को भ्रष्ट कर रहा है। हमें कम से कम प्रेमचंद जैसे कालजयी लेखक को तो सही संदर्भों और सही तथ्यों के साथ पेश करना चाहिए। किसी संस्था का निदेशक या मैनेजर ही ज्ञान-विज्ञान का विशेषज्ञ बन जाए और उपलब्ध ज्ञान की उपेक्षा करके मनमाने फैसले करे तो ऐसा ही परिणाम निकलेगा। यह भी दुखद है कि भारतीय ज्ञानपीठ के न्यासियों और निदेशक के संज्ञान में ये सारे तथ्य लाने पर भी कुछ नहीं हुआ और आज भी ‘दुर्गादास’ बाजार में उपलब्ध है। भारतीय ज्ञानपीठ के न्यासी और नए निदेशक अगर संस्था के गौरव की रक्षा करना चाहते हैं तो उन्हें ‘दुर्गादास’ की तत्काल बिक्री बंद करके इस साहित्यिक दुराचरण के लिए स्पष्टीकरण देना चाहिए। मैं जानता हूं, यह नहीं होगा, पर हिंदी पाठकों को यह तो ज्ञात होना चाहिए कि संस्था का एक कर्मचारी संस्था के दशकों से अर्जित गौरव और प्रसिद्धि पर कैसे प्रश्नचिह्न लगा कर गया है।
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