लक्ष्मीकांता चावला जनसत्ता 26 जुलाई, 2014 : सत्ता के गलियारों में आजकल एक चर्चा जोर-शोर से चल रही है कि किशोरों द्वारा किए गए अपराधों के संबंध में नए कानून का प्रारूप तैयार किया जा रहा है। इसके मुताबिक हत्या और बलात्कार जैसे गंभीर अपराध करने वाले बच्चों को सोलह वर्ष की आयु के बाद वयस्क माना जाएगा और उन्हें वही दंड मिलेगा, जो अठारह वर्ष की आयु से अधिक के अपराधी को मिलता है। कुछ लोग बढ़-चढ़ कर इसका समर्थन करने में लगे हैं। इसका सीधा अर्थ यही होगा कि सोलह वर्ष की आयु पार करते ही बच्चों को घृणित अपराध का अपराधी सिद्ध होने पर मृत्युदंड से लेकर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है। सही है कि जो व्यक्ति अपराध का शिकार होता है, वह और उसके परिजन यही चाहते हैं कि अपराधी को कठोरतम दंड मिले, जैसा कि दिल्ली में दिसंबर 2012 के सामूहिक बलात्कार कांड के बाद हुआ। पर यह याद रखना होगा कि संयुक्त राष्ट्र और विश्व के अधिकतर देश अठारह वर्ष तक किशोरावस्था की उम्र मानते हैं और किशोर न्याय-प्रणाली में भी इसी आयु को किशोरावस्था माना गया है। उन्हें दंड देने के लिए अलग नियम और अलग अदालतें हैं। मुझे लगता है कि केंद्र सरकार का बाल कल्याण मंत्रालय और मेनका गांधी बाल अपराधियों को कठोर दंड दिलवाने के लिए कदम हड़बड़ी में उठा रही हैं। उन्हें सबसे पहले यह जानकारी लेनी चाहिए कि अपराध में संलिप्त देश के कितने बच्चे उन परिवारों से निकलते हैं जहां न शिक्षा है, न रोटी है। वहां छत भी नहीं, जिसके नीचे वे परिवार और माता-पिता का स्नेह-संपर्क पा सकें। ऐसे बच्चों की संख्या भी करोड़ों में है जो छोटी आयु में ही भूख और गरीबी से त्रस्त होकर घर छोड़ कर भागते हैं और उनकी जिंदगी फुटपाथों, स्टेशन के प्लेटफॉर्मों पर बीतती है। वे मानव तस्करी का शिकार हो जाते हैं या अपराधियों के गिरोह में फंस कर जीवन भर अपराध की दुनिया में ही धंसे रहते हैं। हमें उन बच्चों का भी ध्यान करना होगा जो कुपोषण के शिकार हैं और जिनकी रोटी-रोजी का अंतिम आश्रय गंदगी और कूड़े के ढेर बनते हैं। ऐसे कितने ही लापता बच्चे हैं, जिनकी कोई खबर नहीं मिली। उनके अधिकतर गरीब और बेसहारा माता-पिता जीवन भर अपने बच्चों के लिए रोते-तड़पते रह जाते हैं। कानून की वह मशीनरी जो उत्तर प्रदेश के एक मंत्री की भैंस खो जाने पर अति-सक्रिय और कामयाब दिखाई देती है, वही इन बच्चों की गुमशुदा रिपोर्ट लिखने को भी आसानी से तैयार नहीं होती। इन विषम परिस्थितियों में भारत सरकार के बाल विकास मंत्रालय को अगर कोई प्रारूप तैयार करना है तो यह करें कि पूरे देश में ऐसी व्यवस्था बनाई जाए कि किसी भी बच्चे को रोजी-रोटी की खोज
में बचपन में ही घर छोड़ कर महानगरों के धक्के न खाने पड़ें, किसी ढाबे पर जूठे बर्तन न मांजने पड़ें और मजदूरी न करनी पड़े। देश के लापता बच्चों को खोज कर सभी राज्यों के बाल संरक्षण गृहों में शिक्षा, भोजन और संस्कार देकर उन्हें अच्छा नागरिक बनाया जाए। याद रखना होगा कि लाखों बच्चे ऐसे हैं जो लापता होने के बाद अपराध की दुनिया में जाने को मजबूर होते हैं। वे शौक से नहीं जाते। जेलों में बंद करना और कठोर दंड देकर उनका भविष्य नष्ट करना सरकारी तंत्र को शोभा नहीं देता।बाल संरक्षण मंत्रालय को सबसे पहले देश के हर बच्चे को शिक्षा केंद्र में भेजने और जीवन-यापन के लिए स्वस्थ, स्वच्छ भोजन देने का इंतजाम करना चाहिए। अगर बचपन भूखा, त्रस्त और मजबूर है तो देश का भविष्य उज्ज्वल होेने की आशा करना मृगतृष्णा ही है। देश और राज्यों की राजधानियों के सुख-सुविधा संपन्न ठंडे-गरम कमरों में बैठ कर फाइलों का पेट तो ये लोग भर देंगे, पर इससे न देश के गरीब बच्चों का पेट भरेगा, न कोई उन्हें शिक्षा देगा। फिर रोटी जब उन्हें इज्जत से नहीं मिलेगी तो जिंदा रहने के लिए वे किसी की रोटी छीनने का काम करेंगे ही। इसके बाद अगर इन बच्चों को सलाखों में बंद करना ही सरकारों का लक्ष्य हो जाएगा तो हम यह कहने के अधिकारी नहीं रहेंगे कि देश में कोई बाल संरक्षण या बाल विकास का सरकारी विभाग है या कोई सरकारी योजना है। देश और देश के बचपन की सबसे बड़ी त्रासदी यही रही है कि जो बच्चों के संदर्भ में राष्ट्र के नीति-निर्धारक बने, उन्होंने कभी बेबस बचपन और भूखे पेट की पीड़ा को नजदीक से देखा ही नहीं। कहते हैं, जब जागो तभी सवेरा। आज भी बालहित में न सही, देशहित में सही, इन बच्चों की पीड़ा को समझने और समाधान देने का कार्य शुरू हो जाए तो अगले एक दशक में राष्ट्र सेवा का एक महान काम संपन्न हो जाएगा।
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