प्रयाग शुक्ल जनसत्ता 23 जुलाई, 2014 : जल के बीच वहां कुछ पेड़ हैं, जो मानो एक पुंज के रूप में हैं। बबूल जैसी पत्तियों वाले। पर मिल कर सघन हैं। उन पर छोटे बगुले, जल कौवे हैं, कुछ अन्य चिड़ियां भी। प्रवासी पक्षी भी आते हैं। जितनी बार उधर से गुजरता हूं, एक चहचहाहट सुनाई पड़ती है। पैर थम जाते हैं। यह दृश्य आकर्षित करता है, अन्यथा जयपुर में मानसागर झील के मध्य में स्थित जल-महल तो आकर्षण के केंद्र में रहता ही है। दो सौ साल से भी अधिक पुराना यह जलमहल इन दिनों कानूनी विवाद में है। उसमें होटल बनने दिया जाए या नहीं, यही विवाद है। जल के बीच तटबंध से कुछ दूर यह जो पेड़-पुंज वाला उभरा हुआ भूखंड है, उसे झील का द्वीप भी कह सकते हैं। पर उस भूखंड के आकार-प्रकार को देखते हुए उसे उभरे हुए एक भूखंड के रूप में नामांकित करना ही ठीक लग रहा है। उसके चारों ओर पानी में काली बत्तखें तैरती रहती हैं। कुछ प्रवासी पक्षी तीर की तरह जल की लहरों पर उतरते हैं, और फिर उड़ जाते हैं। इस भूखंड की तरह, कुछ और भूखंड मानसागर में हैं। लेकिन उन्हें पक्षियों ने बसेरे के लिए नहीं चुना। इस बार जयपुर में सपरिवार मानसागर के ठीक सामने के एक होटल में ठहरा। सुबह होती तो होटल की बालकनी से जल के पार पक्षियों के ऊपर से सूर्य का उगना-उठना दिखाई पड़ता। जल की कुछ चंचल-सी लहरों पर उसकी आभा दमकती। यह सुहावना दृश्य सराह कर मैं झील के चौड़े तटबंध पर, जो एक चौगान जैसा ही है, चला जाता। फिर आगे परिक्रमा-पथ की ओर बढ़ता। चिड़ियों की गतिविधियों पर दृष्टि डालता। लगता इस भूखंड और पेड़-पुंज की अपनी एक दुनिया है। यह देख कर अफसोस भी होता कि तटबंध की दीवार के नीचे जो पेड़-पौधे हैं, जल को छूती हुई मिट्टी है, वहां पॉलीथीन थैले और कूड़ा-कचरा है। अपनी चीजों की सुंदरता को हम ही बिगाड़ रहे हैं। बहरहाल, तटबंध पर बने हुए छोटे-छोटे घाटों की भी दुनिया अपनी ओर आकर्षित करती है। इन्हीं में से एक में एक सुबह जब कुछ किशोरियां सूखे आटे को जल पर मछलियों के लिए छितरा रही थीं, तो उस गतिविधि की ओर देखने लगा। उनके चेहरे उत्फुल्ल थे। बचपन और किशोरावस्था में अपने किसी ऐसे ही कार्य पर यह प्रसन्न भाव कुछ ज्यादा ही उभर कर सामने आता है। परहित में किया हुआ ऐसा कोई काम कौतुक और सुख एक साथ प्रदान करता है। जब वे किशोरियां वापस घाट की सीढ़ियां चढ़ने लगीं तो निकट से गुजरने पर सहज ही पूछ बैठा- ‘क्या मछलियों को रोज आटा खिलाती हो?’ ‘रोज नहीं, हम जब भी इधर आती हैं।’ वे कहती हैं। मैं एक विशेषज्ञ की तरह उन्हें सलाह देता हूं- ‘गीले आटे
की गोलियां भी तो बना कर खिलाते हैं!’ ‘कभी कभी हम भी वैसा करती हैं।’ फिर उनमें से एक कहती है कि ये ब्रेड भी खा लेती हैं। सहसा मुझमें कुछ कौंधता है। तो तटबंध की दीवारों पर जो ब्रेड बेचने के अस्थायी स्टॉल नजर आते हैं, वे मछलियों के कारण हैं। अब तक यह माने बैठा था कि सुबह की सैर करने वाले जब लौटते होंगे तो नाश्ते वाली ब्रेड यहीं से ले जाते होंगे। चलते-चलते जेडीए गेट तक आ जाता हूं। यह जयपुर डेवलपमेंट अथॉरिटी का संक्षिप्त रूप है। पास में जल को साफ करने वाला फिल्टर प्लांट है। तटबंध की दीवार पर यहां भी ब्रेड बिक रही है। सीलबंद थैलियों में सूखा आटा भी दिखता है। अखरोट का चूरा, सूजी की थैलियां भी। हां, ये मछलियों को खिलाने के लिए ही हैं। बनारस से यहां कुछ बरस पहले आने और स्टॉल लगाने वाले इंद्रजीत बताते हैं कि बीस और दस रुपए वाली ब्रेड- दोनों की ठीक-ठाक बिक्री होती है। लोग मछलियों को खिलाते हैं। एक सुबह चित्रकार मित्र विनय शर्मा और कला-समीक्षक राजेश व्यास भी गाड़ी लेकर मानसागर आ गए। दोनों ही मेरे आत्मीय हैं। उनके साथ सैर करके हम एक बेंच पर बैठे। किसी मंदिर से कीर्तन-लहरी बह आई, ढोलक और अन्य वाद्यवृंदों के साथ। फिर अपने मोबाईल से बीकानेर के रंगनाथ मंदिर की एक कीर्तन लहरी राजेश व्यास ने सुनाई। इसे गृहिणियां गाती हैं। पार्श्व में अब सिंथेसाइजर का संगीत जरूर रहता है, पर उन सबके सुर ‘मिले सुर हमारा तुम्हारा’ का ही पता देते हैं। इसकी चर्चा हुई कि जब सहज ही प्रकृति के, सृष्टि के सुर से हम सुर मिलाते हैं, अहं को विस्मृत कर तो वह अनोखा होता है, फिर चाहे वह लोक का हो या शास्त्रीय। इसी चर्चा में बिस्मिल्ला खां साहब की शहनाई भी आ गई। अच्छा लगा। सहसा तेज हवा आई, आकाश में बादल घुमड़ने लगे। मोर मेघों को पुकार उठे। मानसागर के किनारे यह सब इतना अप्रत्याशित था कि बूंदाबांदी के बीच हम गाड़ी की ओर दौड़ पड़े। कितना सुखद था मानसागर के किनारे यह दृश्य भी देखना।
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