गिरिराज किशोर जनसत्ता 22 जुलाई, 2014 : सरकार बने एक महीना भी नहीं हुआ था कि सवा लाख फाइलें छांट दी गर्इं।
इतने कम समय में इतनी फाइलों की छंटाई करके रद््दी घोषित कर देना कैसे संभव हुआ? यह जादुई चमत्कार मालूम पड़ता है। ओऐंडएम में निर्धारित प्रक्रिया है, जिसके तहत छंटाई होती है। कई स्तरों पर हर फाइल की जांच होती है। हर स्तर पर अधिकृत व्यक्ति प्रमाणपत्र देता है कि अमुक फाइल अनावश्यक घोषित की जाती है। अंग्रेजों ने ओऐंडएम के नियम बहुत सोच-समझ कर बनाए गए थे। कागज या फाइल सुप्रशासन का आधार तो होते ही हैं, वे काल निर्धारण और ऐतिहासिक तथ्यों के साक्षी भी होते हैं। केवल नियमों में लिखी अवधि के आधार पर छंटाई नहीं की जा सकती। जो फाइलें अलग की जाती हैं उनका ब्योरा भी सुरक्षित रखा जाता है।
बहुत पुराने रिकार्ड बताते हैं कि जो फाइलें नष्ट की जाती थीं उनके संक्षिप्त विवरण यानी एबस्ट्रेक्ट भी रजिस्टरों में सुरक्षित रहते थे जिनका प्रमाणीकरण बड़े अफसर के द्वारा होता था। कानूनी समस्या उत्पन्न होने पर, कहा जाता है, उस संक्षिप्तीकरण को प्रिवी काउंसिल भी विश्वसनीय मानती थी। यह बताया जाता है कि रजिस्टर में संक्षिप्तीकरण का इंदराज करने वाले मुंशी भी खुशखत नियुक्त किए जाते थे। यह सही है कि तब फाइलें भी कम होती थीं, उनकी वीडिंग धीरे-धीरे संभल कर करना संभव होता था। अब आबादी बढ़ने के साथ-साथ फाइलें भी बढ़ गई हैं। पर टेक्नोलॉजी ने बहुत सुविधाएं उपलब्ध करा दी हैं। उत्तर प्रदेश ने तो कागज विहीन यानी पेपरलेस पत्रावली परिचालन शुरू करने की घोषणा की है। शायद डिजिटल। संसद में भी प्रस्ताव आया कि वीडिंग या नष्ट की जानी फाइलों की माइक्रो फिल्म बनवा कर ओपन लाइब्रेरी बनाई जानी चाहिए। मोदी सरकार ने आते ही सबसे पहले फाइलों की वीडिंग कराई। वह तो बहुत ही परंपरावादी तरीका रहा होगा। पता नहीं नष्ट की जाने वाली फाइलों का कोई रिकार्ड रखा गया या नहीं। संभवत: नष्ट की जाने वाली फाइलों का संक्षिप्त विवरण सुरक्षित रखने की परंपरा तो बहुत पहले समाप्त हो गई। सवाल है बिना वस्तुस्थिति का अध्ययन किए वीडिंग या फाइलों के नष्टीकरण की आवश्यकता और त्वरा क्या थी। यह चकित करने वाली बात है कि नई सरकार ने आते ही कैसे तय कर लिया कि सवा लाख फाइलें नष्ट की जानी हैं। जबकि ओऐंडएम के अनुसार इसकी बहुत लंबी प्रक्रिया है। उस प्रक्रिया को इतने कम समय में कैसे पूरा कर लिया गया। क्या वह प्रक्रिया यूपीए सरकार ने पूरी कर ली थी। अगर कर ली थी तो भी नई सरकार का एक दायित्व था, रद््द करने से पहले पुनरवलोकन जरूरी था। क्या सरकार के सामने कुछ विशेष फाइलें थीं? इस तरह के सवाल उठना स्वाभाविक है। सरकार अगर विरोधी दल की भूमिका में होती तो सबसे अधिक दाल में काला उन्हें ही नजर आता। इतने मंत्रालय हैं। सबके अलग-अलग विषय और परंपराएं होती हैं। फाइलों को नष्ट करना प्रशासनिक स्मृतियों और उद्धरणों या नजीरों को नष्ट करना है। चाहे विदेश मंत्रालय हो, या वित्त मंत्रालय, गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, संस्कृति मंत्रालय आदि हों, कोई भी मंत्रालय अपनी इन परंपराओं और नजीरों को इतने आकस्मिक ढंग से नष्ट करने का खतरा नहीं उठा सकता। समय-समय पर विदेशी राजनयिक आते हैं और उनसे विचार-विमर्श होते हैं, दुभाषिए नोट्स लेते हैं, बहुत-से देशों में वे तक रिकार्ड पर रखे जाते हैं। उनके भाषण सुरक्षित रखे जाते हैं। कुछ विमर्श बहुत जटिल होते हैं, उनका संरक्षण पत्रावलियों का हिस्सा हो जाता है। एक बार बातचीत के दौरान खुशवंत सिंह ने बताया था कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और चाउ एन लाई के बीच अच्छे दिनों में कुछ आश्वासन चीन के द्वारा दिए गए थे। जब दोनों के बीच खटास पैदा हो गई, चाउ एन लाइ के उन आश्वासनों की जरूरत पड़ी तो हमारे यहां संबंधित फाइल उपलब्ध नहीं हो पाई। जवाहरलाल नेहरू चाह कर भी उन बातों का लाभ नहीं उठा पाए। महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल से संबंधित फाइलों को छांट दिए जाने के बारे में पिछले दिनों संसद में कई बार सवाल उठे। कायदे से गृहमंत्री के स्पष्टीकरण के साथ बात खत्म हो जानी चाहिए। लेकिन गृहमंत्री राजनाथ सिंह के इस आश्वासन के बाद भी कि गांधीजी की हत्या से संबंधित कोई फाइल नष्ट नहीं की गई है, शक समाप्त नहीं हुआ है। इसलिए कि यह घटना भाजपा सरकार के दौरान हुई है। अगर यूपीए सरकार के दौरान इस तरह फाइलें नष्ट की गई होतीं, तो शायद ऐसा बावेला न मचता। पिछले दिनों भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के नए अध्यक्ष की नियुक्ति के औचित्य पर भी सवाल उठे हैं। चूंकि संघ परिवार इतिहास को अपने मनमाफिक ढंग से लिखने-लिखवाने के एजेंडे पर चल रहा है, इसलिए बहुत-से लोगों को लगता है कि गृह मंत्रालय की इतिहास के एक विशेष कालखंड की फाइलें नष्ट किए जाने का अंदेशा कहीं संघ की उसी कार्य-योजना का हिस्सा न हो। कांग्रेस ने इस मामले में सरकार से श्वेत पत्र लाने की मांग की है। दरअसल, इस बारे में संसद में सवाल उठाने वाले सदस्य संभवत: इस बात को लेकर शंकित हैं कि कहीं गांधी और पटेल से संबंधित फाइलों को नष्ट न कर दिया गया हो! इसका कारण हो सकता है, गलत है या सही,
यह बात अलग है। गांधी की हत्या हुई थी। उन्हेंमारने वाला हिंदूवादी समूह से नाता रखता था। मुझे स्मरण है कि मेरी बुआ के लड़के संघ कार्यालय में रहते थे। जिस दिन गांधी की हत्या हुई उसी शाम वे मिठाई लेकर आए थे। हमारा परिवार गांधी-भक्त नहीं था, पर उस दिन हमारे यहां भी खाना नहीं बना था। जब उनसे पूछा गया कि मिठाई किसलिए लाए, तो बोले आज कार्यालय में दुश्मनों के दोस्त के मरने के उपलक्ष्य में मिठाई बंटी थी। मिठाई वापस कर दी गई। गांधी की हत्या का जश्न कार्यालय स्तर पर मनाया गया या कुछ लोगों ने मनाया यह कहना संभव नहीं। उसी शाम को केंद्र सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने आरएसएस आदि संगठन के लोगों को तत्काल गिरफ्तार करने के आदेश दे दिए थे। उत्तर प्रदेश में गोविंद सिंह गृहमंत्री थे, उन्होंने रात ही रात में सब हिंदूवादी संगठनों के सदस्यों की धर-पकड़ कराई थी। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि कहीं वे सब या ऐसी फाइलें वीड आउट या नष्ट न करा दी गई हों। गांधी को आरएसएस और अन्य हिंदूवादी संस्थाएं, यहां तक कि वामपंथी भी सुहाती नजर से नहीं देखते थे, शायद आज भी नहीं...। जहां तक सरदार पटेल का सवाल है, उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनसे पहले लालकृष्ण आडवाणी गोद ले चुके हैं। वे उनमें अपनी छवि देखते हैं। प्रधानमंत्री तो अपने हिसाब से पटेल की छवि गढ़ने में लगे हैं। गांधी से बड़ी छवि बनाने के चक्कर में वे उनकी संसार की सबसे ऊंची लौह-मूर्ति का निर्माण करा रहे हैं। वे शायद यह भूलाना चाहते हैं कि सरदार पटेल ने ही गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर सबसे बड़ा हमला किया था, उस पर पाबंदी लगाने का आदेश जारी किया था। इस तथ्य को मोदी या संघ के नेता कैसे छिपा सकते हैं? क्या इसी सच्चाई को ढंकने के लिए उन्होंने इसके आगे अपने प्रचार का परदा खड़ा कर दिया है? केवल बड़ी मूर्ति बना देने से किसी महान व्यक्ति को छोटा नहीं किया जा सकता। महानता स्वत: बृहत्तर से बृहत्तर होती जाती है। मूर्ति कितनी भी बड़ी बन जाए, पर उसका आकार-प्रकार बढ़ता नहीं, उतना ही रहता है जितना उसे बनाते समय दे दिया जाता है। सरदार पटेल भी देश को बनाने वाले बड़े वास्तुकार थे, पर पटेल को पटेल या नेहरू को नेहरू बनाने वाले गांधी जैसे सामान्य व्यक्ति थे। सुभाष चंद्र बोस की पत्रावली की चिंता इसलिए है कि एक भ्रम या तथ्य है कि नेहरू और सुभाष बड़े अच्छे मित्र थे, बाद में दोनों के बीच वर्चस्व की लड़ाई हो गई थी, वह अंत तक रही कहीं। हो सकता है उनसे संबंधित फाइल भी किसी स्तर पर नष्ट न कर दी गई हो। दीनदयाल उपाध्याय बड़े चिंतक थे, मुझे उनसे मिलने का सुअवसर मिला है। सौम्य और शालीन व्यक्तित्व था उनका। लेकिन जनसंघ के दिनों में वहां पर भी वर्चस्व की लड़ाई चल रही थी। उनका शव एक रेलवे यार्ड में पड़ा हुआ मिला था। उस समय के समाचार पत्रों में यह सवाल उठा था कि वह दुर्घटना है या हत्या। इस चक्कर में पार्टी के बड़े नाम उछले थे। जांच भी संभवत: बैठी थी, पर बात न साफ हुई न सामने आई। वह फाइल भी ऐतिहासिक महत्त्व की है। उसे रखा गया या नहीं? ऐसी फाइलें हमेशा खतरे में रहती हैं। और भी अनेक फाइलें होंगी जो अंगरेजों के जमाने की भी होंगी। अंगरेज पत्रावलियों के संरक्षण के बारे में बड़े संवेदनशील थे। मैं निर्णय नहीं दे रहा हूं, कुछ सवाल हैं जो उठ रहे हैं। और भी ऐसे बहुत-से सवाल होंगे जो सामने नहीं आते, वे फाइलों में दफ्न हो जाते हैं। फाइलों को नष्ट करने से पहले महत्त्वपूर्ण तथ्य संरक्षित करना जरूरी है। छांटी गई सवा लाख फाइलें कैसे नष्ट की गर्इं यह अलग सवाल है। वे जलाई गर्इं या रद््दी में बेची गर्इं? सुना है अंगरेजों के जमाने में बड़े अफसरों की मौजूदगी में फाइलें जलाई जाती थीं। वे रजिस्टर पर प्रमाणपत्र देते थे कि उनकी उपस्थिति में उन फाइलों को जलाया गया। जो ऐतिहासिक महत्त्व की फाइलें होती हैं उन्हें अभिलेखागार में भेज दिया जाता है। बताते हैं कि गांधीजी की हत्या से संबंधित फाइल अभी तक अभिलेखागार में नहीं है। सरकार द्वारा बताया गया है कि वह अभिलेखागार में है। यह भी सरकार को बताना चाहिए कि नष्ट करने के लिए छांटी गई फाइलें किस काल-खंड की हैं। किस-किस मंत्रालय और किस-किस विषय से संबंधित हैं। नष्ट की गई फाइलों की सूची भी उपलब्ध कराना पारदर्शिता के लिहाज से जरूरी है।
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