सीरज सक्सेना जनसत्ता 22 जुलाई, 2014 : कजिमिश भारतीय व्यंजन और उसमें मसालों के प्रयोगों के बारे में जानने और कहने के लिए काफी उत्साही हैं। हम दोनों का मानना है कि रसोई एक प्रयोगशाला है और मेरा लगभग हर हिंदुस्तानी कलाकार मित्र इस प्रयोगशाला में कुछ न कुछ जरूर रच लेता है। खुद अंडे से परहेज करता हूं, पर रसोई में उपलब्ध सामग्री टमाटर, हरा प्याज, काली मिर्च आदि से अंडे की भुर्जी तैयार कर अपने साथी कलाकारों को पेश कर रहा था। यह जान कर खुशी हुई कि यह उनके लिए नया और प्रशंसनीय स्वाद था। पचासवें अंतरराष्ट्रीय सिरेमिक कला सम्मेलन पोलैंड में देश-विदेश के हम पंद्रह कलाकार इकट्ठे हैं। कजिमिश मिट्टी में महीन काम करते हैं। उनका काम यथार्थ होते हुए भी किसी दूसरे लोक का लगता है। यह उनका अपना रचा हुआ लोक है, जिसमें देखने के लिए बहुत सारे सूक्ष्म बिंब और तत्त्व मौजूद हैं। कभी-कभी उनके काम खिलौने की तरह तो कभी किसी डरावने स्वप्न की तरह भी लगते हैं। काम में रमे कजिमिश अपने भीतरी और बाहरी यथार्थ से प्रेरणा लेते हैं। ईहोर क्रोएशिया से आए हैं। साठ बरस के तो होंगे ही। कजिमिश भी उनकी ही उम्र के हैं। ईहोर मिटटी को बेल कर पतली परत तैयार करते हैं। फिर उसके छोटे-छोटे टुकड़े कर उन्हें आपस में जोड़, कभी परिचित तो कभी अपरिचित (नया) आकार तैयार करते हैं। रुता मेरी ही तरह चालीस की हैं और अपने देश लिथुआनिया में सिरेमिक कला पढ़ाती हैं। वे छोटे-छोटे आकार गढ़ती हैं और उन्हें अपनी अनूठी रचनात्मकता से जमाती हैं। एक माह के इस मिट्टी के उत्सव में उन्होंने अपने देश की लोक कला के बारे में भी बताया और दो-तीन लोक गीत भी सुनाए। यूरी और लुसिया राजी अपनी कार से इटली के फाएंसा शहर से आए हैं। उनका शहर भी सिरेमिक कला के लिए महशूर है, जैसे अपना खुर्जा। लुसिआ हंसमुख और जीवंत कलाकार हैं। वे हमारे इस समूह की आवाज हैं। उनकी कोई भी छोटी या बड़ी बात बिना हाथों और चेहरे की भाव-भंगिमा के पूरी नहीं होती। उनके जीवन जीने की शैली सभी को प्रभावित करती है। वे अपने जीवन और कला संघर्ष के बारे में भी हंसते हुए नाटकीय अंदाज में बताती हैं। अपने जीवन-यापन के लिए वे ग्राफिक डिजाइन करती हैं। भारत की तरह यूरोप के देशों में भी सिर्फ कलाकर्म से जीवन-यापन संभव नहीं। कला और कलाकार की जरूरत एशियाई, यूरोपीय, अमेरिकी आदि समाजों में अब उतनी नहीं रह गई है। जबकि कलाकारों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है और जिससे कला और कलाकारों के स्तर में भी बहुलता आई है। एक सुबह हम ऑश्विट्ज गए। कार से बोलेस्वावियत्स से करीब तीन घंटे में हम पहुंचे। रास्ते भर एक्सप्रेस सड़क के दोनों ओर अंतहीन खेतों का विस्तार
था। हरे-पीले का फैलाव था, ऊपर नीला आसमान था। वहां संग्रहालय और कैंप देख कर लगा जैसे भीतर कुछ टूट गया हो। उस वक्त हुए घिनौने कृत्य से उठी चीखें और पीड़ा आज भी वहां पसरी है। हजारों लोगों की यहां हत्याएं हुर्इं। उन्हें धोखे से मारा गया। उनके सामान को यहां रखा गया है। इतने सारे चश्मे और महिलाओं के सिर के बाल एक साथ मैंने पहले कभी नहीं देखे। कई हजार पैरों के जूते और चप्पलें भी। वहां से लौटते हुए हम चुप ही रहे।मार्ता एक चित्रकार हैं और सिरेमिक उनके लिए नया माध्यम है। वे पोलिश हैं, पर दस सालों से लंदन में रहती हैं और फैशन कंसल्टेंट के रूप में काम करती हैं। पर इस समारोह में वे एक दुभाषिए की तरह भी काफी उपयोगी रहीं। एदिता इसी शहर में रहतीं हैं और बच्चों के एक स्कूल में प्रयोगात्मक कला पढ़ाती हैं। एक दोपहर मैंने भी उनके स्कूल के बच्चों के साथ रचनात्मक समय बिताया। यहां के बच्चे भी मकान, पहाड़, आकाश, पक्षी आदि बनाते हैं, पर उनके मकान हमारी तरह सपाट छत वाले नहीं हैं। लगभग हर लड़का फुटबॉल खिलाड़ी बनना चाहता है। बच्चों से हर बार की तरह इस बार भी सीखा, जैसे केसल (किला) बनाना। मातेऊष हमारे इस कार्यक्रम के सर्वेसर्वा हैं। वे एक मूर्तिकार हैं। मेटल कला माध्यम में भी उन्हें अच्छी महारथ हासिल है। काफी मेहनती और जोशीले कलाकार हैं। इन दिनों वे शहर के मुख्य चौक के लिए एक सोफानुमा बेंच बना रहे हैं, जिसकी ऊपरी सतह चीनी मिटटी की रहेगी। पीओत्र और एवेल्का भी मूल रूप से पोलिश कलाकार हैं, पर इन दिनों वे नॉर्वे और आयरलैंड में अपनी कला के साथ हैं। एवल्का का काम उन्हीं की तरह जहीन है। वे इन दिनों जल विषय पर अपने शिल्प बना रही हैं और पीओत्र अभिनय के भी शौकीन हैं। उनके काम भव्य हैं और उनके भीतर मिटटी के भीमकाय शिल्प रचने का जोखिम लेने का जुनून है। मिट्टी के इस विशाल उत्सव में मिट्टी को इस यूरोपीय संस्कार के साथ छूना, मिटटी को और निकट से जीने जैसा है।
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