Monday, 21 July 2014 11:38 |
पवन रेखा
जनसत्ता 21 जुलाई, 2014 : यौन हिंसा के सबसे ज्यादा जघन्य और घृणित रूप सामूहिक बलात्कार की एक और घटना ने एक बार फिर मेरे अंतस को झकझोर कर रख दिया है। हम जितने ज्यादा कथित रूप से आधुनिक और प्रगतिशील हो रहे हैं, हैवानियत के नाखून उतने ही बढ़ते जा रहे हैं। अतीत की बर्बरता आधुनिक जीवन और समाज में एक नए इरादे और हमले के साथ लौट आई है। सोलह दिसंबर, 2012 की घटना में दिल्ली में निर्भया के साथ जो हुआ, उसे देश अभी भूला नहीं है। हमने सड़कों पर नारे लगाए, आवाज उठाई, मोमबत्तियां जलार्इं और पुलिस के डंडे भी खाए। लेकिन नतीजा क्या मिला? क्या आपराधिक मानसिकता वालों ने उससे कोई सबक लिया? केवल हाल में हुई घटनाओं को ही गिनाने चलें तो लिखने के लिए जगह आखिर कम पड़ जाएगी।
बदायूं की घटना को अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब सामूहिक बलात्कार के बाद दो नाबालिग लड़कियों की हत्या कर उनका शव पेड़ से लटका दिया गया था। अब दरिदंगी का जो खेल उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के मोहनलालगंज में हुआ, उसे देख कर शायद सभ्यता भी शरमा जाए, दहल जाए। सामूहिक बलात्कार के बाद महिला की डंडे से पीट-पीट कर हत्या कर दी गई, फिर लाश को नंगा करके फेंक दिया गया। वहां खून इस कदर फैला हुआ था और कुछ लापरवाह लोगों ने उस महिला के नग्न शव की जो तस्वीर इंटरनेट पर जारी कर दी, उसे देख कर हैवानियत भी कांप जाए। लेकिन इस सबके बाद भी ऐसा सन्नाटा पसरा है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। हैरत यह भी है कि दिल्ली के निर्भया कांड के लिए देश में हर जगह सड़कों पर उतरे लोग इस मामले में अब तक चुप दिखे हैं। अगर लोग आज चुप रहे तो आगे इसका खमियाजा किसे भुगतना पड़ेगा?
विडंबना यह भी है कि एक ओर बलात्कारियों को गिरफ्तार करने में पुलिस नाकाम दिखी तो दूसरी ओर मुख्यमंत्री सोशल मीडिया पर मलेशिया विमान हादसे में मरने वालों के प्रति संवेदना जाहिर कर रहे थे। निश्चित रूप से विमान हादसे में मारे गए लोगों के प्रति सबको दुखी होना चाहिए। लेकिन अपने शासन-क्षेत्र में हुई इतनी वीभत्स घटना पर
शर्मिंदा और दुखी होने की जिम्मेदारी किसकी है? इसके बजाय मुलायम सिंह यादव भी यह दलील देने में लगे हैं कि उत्तर प्रदेश में बलात्कार की घटनाएं सबसे कम होती हैं। सवाल है कि बलात्कार के जो अपराधी आज खुलेआम लोगों के बीच घूम रहे हैं, उनके भीतर कोई खौफ क्यों नहीं है? पुलिस किन वजहों से ऐसे मामलों में तब तक सक्रिय नहीं होती, जब तक उच्च स्तर से या जनता के बेकाबू होने का दबाव उसके सामने नहीं पैदा होता? जाहिर है, अगर ऐसा हो रहा है तो अपराधियों को शह सरकार और उसकी पुलिस के नरम रवैए से मिल रही है। कई मामलों में यह देखा गया है कि पुलिस और प्रशासन से जुड़े लोग अपराधियों को पकड़ने के बजाय नेताओं के तलवे चाटने में लगे होते हैं। सत्ता और प्रशासन के ऐसे ही रवैए से बलात्कारी और दूसरे अपराधी बेखौफ घूमते हैं और उनकी मर्द मानसिकता की कुंठा उन्हें यह बताती-सिखाती है कि हम चाहे जो करें, लड़कियों की क्या हैसियत कि वे ‘नहीं’ बोलें; अगर वे मना करेंगी तो उनके साथ बलात्कार होगा, उनका खून बहेगा और उसमें हम नहाएंगे...!
सवाल है कि ऐसा करने वाले अपराधियों को खुला छोड़ देने वाला हमारा शासन और समाज आखिर कब तक अपना घर बचा पाएगा? क्या ऐसी घटनाएं तब रुकेंगी जब लोगों का गुस्सा फूट कर बहुत कुछ तबाह करने पर उतारू हो जाएगा? क्या यह सब रोकने के लिए ऐसी हर घटना पर लोगों के उबल पड़ने की जरूरत नहीं है?
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