Friday, 18 July 2014 09:17 |
जनसत्ता 18 जुलाई, 2014 : पश्चिम बंगाल में पिछले कई सालों से रेल की टक्कर से हाथियों के मरने की घटनाएं सामने आती रही हैं। मगर इस पर रोक लगाने के लिए जरूरी कदम उठाने की मांग के प्रति सरकारी तंत्र में शायद ही कभी कोई सक्रियता देखी गई। हालांकि जब भी रेल से टकरा कर हाथियों के मारे जाने की कोई बड़ी घटना होती है, सरकार की ओर से तत्काल यह बयान आ जाता है कि ऐसे हादसों पर काबू पाने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएंगे। लेकिन हकीकत किसी से छिपी नहीं है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मई 2006 से नवंबर 2013 के बीच तेज गति वाली रेलों की टक्कर से कम से कम पचास हाथियों की जान जा चुकी है। ये घटनाएं आमतौर पर न्यू जलपाईगुड़ी और अलीपुर द्वार के बीच पड़ने वाली एक सौ अड़सठ किलोमीटर लंबी रेलवे लाइन पर हुर्इं, जो हाथियों के एक मुख्य गलियारे से गुजरती है। कैग, यानी नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने अपनी ताजा रिपोर्ट में इसी मसले पर पश्चिम बंगाल सरकार के लापरवाह रवैए की कड़ी आलोचना की है। रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि पश्चिम बंगाल का वन विभाग हाथियों के गलियारे की पहचान करने और जंगली हाथियों की रेल दुर्घटनाओं में बार-बार होने वाली मौतों को रोकने में विफल रहा है। गौरतलब है कि वन्यजीव विभाग की सालाना रिपोर्ट में कहा गया है कि रिहाइश, खेती और चाय के बागानों में तेजी से बढ़ोतरी के चलते न सिर्फ जंगलों और चरागाहों का रकबा घटा है, बल्कि इसने हाथियों के प्रवास के गलियारों को भी छोटा किया है। कैग के मुताबिक पश्चिम बंगाल के केवल पश्चिमी मंडल में बक्सा के जंगलों में रेलवे लाइन के नजदीक हाथियों की गतिविधियों पर नजर रखने और रेलवे के नियंत्रण कक्ष को सूचित करने के लिए विभाग की ओर से कर्मचारियों और अस्थायी मजदूरों की तैनाती की गई है, लेकिन बाकी मंडलों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। जबकि वन विभाग और रेल अधिकारियों ने पिछले साल नवंबर में ही फैसला किया था कि इस व्यवस्था को अन्य तीन रेल मंडलों में भी लागू किया जाएगा। विडंबना है कि सरकार का ऐसा
रवैया तब है, जब रेल की टक्कर से हाथियों को बचाने के मसले पर कई अध्ययन और खुद केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय के सुझाव सामने आ चुके हैं। सवाल है कि जब इन घटनाओं के मुख्य गलियारे की पहचान कर ली गई है तो उसकी समीक्षा करने और उन्हें सूचीबद्ध करके जरूरी कदम उठाने से पश्चिम बंगाल सरकार को कौन रोक रहा है! क्या सरकार यह मान कर चल रही है कि हाथियों का इस तरह के हादसों में मरना कोई खास चिंता की बात नहीं है? यह बेवजह नहीं है कि रेल दुर्घटनाओं में हाथियों के मरने की दर में कोई कमी नहीं आई है। ऐसे हादसों के लिहाज से जिन इलाकों को चिह्नित किया गया है, वहां रेल लाइनों को दोनों तरफ से तार की बाड़ से घेरा जा सकता है या फिर हाथियों की ज्यादा आवाजाही वाले कुछ खास क्षेत्रों में भूमिगत रेल लाइन भी बिछाई जा सकती है। किसी खास दूरी के बीच ट्रेन की गति को सीमित करने की मांग भी कई बार सामने आ चुकी है। इसके अलावा, अभयारण्यों से गुजरने वाली रेल लाइनों के तीखे मोड़ों को ठीक करने की जरूरत है, जहां ट्रेन के अचानक आ जाने से हाथी या दूसरे जानवर कट जाते हैं। हाथी को भारत में विरासत पशु घोषित किया जा चुका है, लेकिन आखिर किन वजहों से इन्हें नाहक मारे जाने से बचाने की दिशा में कोई ठोस पहलकदमी नहीं हो पा रही है?
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