क्षमा शर्मा जनसत्ता 18 जुलाई, 2014 : प्रधानमंत्री मोदी ने विकास के अपने नक्शे में सौ स्मार्ट शहर बनाने की बात कही है। उनका कहना है कि इससे आसपास के गांवों का विकास होगा।
शिक्षा और रोजगार के नए साधन बनेंगे। इससे पहले वे अपने कई साक्षात्कारों में यह बात कह चुके हैं। सच तो यह है कि आप भारत के किसी भी शहर में चले जाएं, वहां बड़े-बड़े कूड़े के ढेर, गंदी बदबूदार नालियां, पानी-बिजली की बेइंतहा कमी, प्रदूषण से सामना होता है। तीर्थ स्थलों की हालत तो और खराब है। इसलिए अगर अच्छे साफ-सुथरे शहर होंगे, सड़कें, परिवहन के साधन, सफाई की उचित व्यवस्था, कचरा निपटान के उपाय, अस्पताल, पानी का प्रबंध होगा, बारिश के पानी के संचयन की व्यवस्था होगी, आसपास होने वाली फसलों के उत्पाद तैयार होंगे तो लागत कम होगी, फसलों के भंडारण की उचित व्यवस्था होगी तो निश्चय ही देश के विकास में यह बहुत अच्छा और दूरगामी कदम होगा। इससे गांवों से शहरों की ओर पलायन रुकेगा और बुनियादी ढांचे, जैसे कि घरों की कमी भी नहीं रहेगी। अगर गांवों में ही अच्छी शिक्षा और रोजगार की व्यवस्था हो तो कोई भी अपना गांव-घर छोड़ कर नहीं जाना चाहता। गांवों के लिए मोदी स्वाइल हेल्थ कार्ड की बात कह रहे हैं, जो उन्होंने गुजरात में जारी किया था। इस हेल्थ कार्ड के जरिए किसान को यह पता चलेगा कि उसकी जमीन में कौन-सी फसल अच्छी हो सकती है। पानी की कितनी जरूरत है। कीटनाशक चाहिए कि नहीं। अभी होता यह है कि जमीन में जो फसल नहीं हो सकती किसान उसे ही बोते रहते हैं। कीटनाशक नहीं भी चाहिए तो उसका प्रयोग करते रहते हैं। मोदी फसलों की मैपिंग की बात भी कर रहे हैं, जिसके जरिए पता चलेगा कि कहां कौन-सी फसल कितनी होती है। आज तक कभी इस तरह की मैपिंग नहीं की गई है। इसी तरह बारिश की मैपिंग भी की जा सकती है। इसके जरिए बारिश के पानी के भंडारण की अगर व्यवस्था की जाए तो पानी के जिस संकट से देश जूझ रहा है, वह दूर हो सकता है। यही नहीं, धरती का जल स्तर भी बढ़ सकता है। जहां किसानों ने अपने प्रयासों से बारिश के जल को संचित किया है वहां फसलें अच्छी हुई हैं, जल संकट कम हुआ और जल स्तर बढ़ा है। लेकिन सवाल है कि बहुत अच्छी लगने वाली ये बातें होंगी कैसे? इन्हें पूरा करने की योजना क्या होगी? इनका कोई नक्शा अगर तैयार किया गया है तो वह क्या होगा? मोदी की बात को ही ध्यान में रखते हुए इस बजट में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बड़े शहरों के आसपास सौ स्मार्ट सिटीज बनाने की घोषणा की। इन्हें बनाने के लिए बजट में 7060 करोड़ रुपयों का प्रावधान भी किया गया है। यह भी कहा गया कि ये शहर अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस होंगे। बजट में झोपड़ियों के विकास के लिए कंपनियों के सीएसआर में इसे अनिवार्य कर दिया गया है। पूरे देश में गरीबों के लिए मकान बनाने के लिए भी चार हजार करोड़ रुपए का अलग से प्रावधान किया गया है। कहा गया है कि पांच सौ शहरों के विकास पर अलग से ध्यान दिया जाएगा। यहां सीवेज और कूड़े के निपटान, पानी की उपलब्धता आदि पर खास ध्यान होगा। इन शहरों में डिजिटल कनेक्टिविटी भी होगी। ये सारी प्रतिज्ञाएं बहुत अच्छी लगती हैं। अगर ऐसा हो सके तो अच्छा होगा। मगर क्या इस दौर में जब जमीन की कीमतें आसमान छू रही हैं, सौ शहरों को बसाने के लिए मात्र सात अरब साठ लाख रुपए काफी होंगे। भूमंडलीकरण के बाद मकानों की कीमतों में तीन सौ प्रतिशत का इजाफा हुआ था। जाहिर है कि इससे घर के लिए कर्ज देने वाले बैंकों और बिल्डर्स ने खूब चांदी काटी और मकानों की कीमतों का भारी बोझ मकान खरीदने वालों की जेबों पर पड़ा था। अखबारों के रीयल स्टेट वाले पन्नों में आने वाले आकर्षक विज्ञापनों और बिल्डरों के झूठे-सच्चे वादों ने भी मकानों की कीमतों को और अधिक बढ़ाया क्योंकि अखबार में छपने वाली बातों को अक्सर लोग सच मान लेते हैं। इससे हुआ यह कि दिल्ली तो छोड़िए, आसपास के शहरों में भी एक मामूली नौकरीपेशा आदमी के लिए मकान खरीदना मुश्किल हो गया। और अब जब से जमीन अधिग्रहण के नए नियम बने हैं, तब से जमीन अधिग्रहीत करना सरकारों के लिए भी आसान नहीं रहा। साधारण आदमी के लिए जमीन का एक छोटा टुकड़ा तक खरीदना असंभव हो गया। ऐसे में इन स्मार्ट शहरों में मकान किसके लिए होंगे। जाहिर है उन्हीं के लिए, जो इन दिनों मकान रहने के लिए कम, निवेश के लिए ज्यादा खरीदते हैं। जमीन-जायदाद के बाजार में कीमतों में उछाल आने का कारण भी यही है कि जिनके पास अनापशनाप पैसा है वे उसमें इसीलिए लगाते हैं कि वहां कीमतें दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती हैं। कर बचाने का भी यह एक कारगर तरीका है। इसीलिए बिल्डरों को मनमानी कीमतें मिलती हैं। बिल्डरों से यह कोई नहीं पूछता कि आखिर इस सेक्टर में कीमतें कैसे इतनी ज्यादा बढ़ गई हैं। और आज की परिभाषा और बातचीत के चलन में इसे ही विकास और निवेशक का भरोसा कहते हैं। निवेशक के भरोसे का मतलब ही यही है कि वह कम लागत पर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमा सके। बजट में बताया गया है कि पांच सौ और शहरों का विकास किया जाएगा। इन दिनों दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बंगलुरु जैसे शहर आबादी के बोझ से दबे जा रहे
हैं। दिल्ली की आबादी तो ढाई करोड़ तक जा पहुंची है। विश्व में आबादी के लिहाज से यह शहर जापान के शहर तोक्यो के बाद दूसरे नंबर पर है। बड़े शहरों में ज्यादा आबादी होने का कारण वहां रोजगार के अधिक अवसरों का होना है। जाहिर है कि जब नए स्मार्ट शहर बनेंगे, वहां सुविधाएं होंगी तो इन्हें भी आबादी का दबाव झेलना होगा। वर्षों पहले उत्तराखंड के बहुत से गांव पुरुषों और लड़कों से खाली हो गए थे। ये मनीआर्डर इकॉनामी से चलते थे। क्योंकि गांवों के सारे लोग काम की तलाश में शहरों की ओर चले गए थे। यहां तक कि कई जगह ऊंचे पेड़ों पर चढ़ कर फल तोड़ने और खेती करने तक के लिए कोई नहीं बचा था। आज बहुत से गांवों में यही हालत है। तो क्या इन शहरों को आबादी के बोझ से बचाने के लिए ऐसी कोई व्यवस्था की जाएगी कि लोगों का अपने गांवों और छोटे शहरों से पलायन रुक सके। उन्हें शिक्षा और रोजगार की व्यवस्था स्थानीय स्तर पर ही मुहैया कराई जा सके। पिछले दिनों एक विज्ञापन में कहा जाता था कि जो रास्ता छोटे शहर से बड़े शहर तक जाता है, वही रास्ता लौट कर बड़े शहर से छोटे शहर तक आता है। इसका शायद यही अर्थ है कि सुविधाएं छोटे शहरों और गांवों तक पहुचें न कि वे बड़े शहरों तक केंद्रित होकर रह जाएं। एक बात यह भी है कि पानी को लेकर जिस तरह पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है, क्या इन स्मार्ट शहरों में वर्षा जल संचयन की ऐसी कोई व्यवस्था विकसित होगी कि जमीन का जल स्तर न केवल बना रहे, बल्कि बढ़े। दिल्ली में जल स्तर चार सौ मीटर से भी अधिक नीचे जा पहुंचा है। इसका कारण यही है कि फ्लैट बनाने वालों के ऊपर सरकारी नियंताओं ने यह जिम्मेदारी ही नहीं डाली कि वे जहां घर बना रहे हैं वहां पानी के दुबारा उपयोग और वर्षा जल संचयन की व्यवस्था करें वरना उन्हें कम्पलीशन सर्टिफिकेट न दिया जाए। इन दिनों देश में कृषि योग्य भूमि का रकबा घट रहा है और हर जगह कंक्रीट के जंगल उगते दिखाई दे रहे हैं। भवन निर्माता फ्लैट और घर तो बना रहे हैं, मगर वे वर्षा जल संचय का कोई इंतजाम नहीं करते। इसलिए पहले जहां एक मंजिला घरों में कुछ हजार लोग रहते थे, वहीं जब बहुमंजिला घर बन जाते हैं तो वहां लाखों लोग रहने लगते हैं। बिजली और पानी की जरूरत बेहद बढ़ जाती है। इसी अनुपात में जमीन का जल स्तर गिरता जाता है। दिल्ली के आसपास गुड़गांव और नोएडा इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। इसलिए क्यों नहीं ऐसा किया जाता कि जो शहर पहले से बसे हुए हैं उन्हीं का विकास किया जाए। तब किसानों से जमीन लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। नए स्कूल, कॉलेज, बस स्टैंड, अस्पताल, रेलवे स्टेशन आदि बनाने की जरूरत भी नहीं है। हां उनके उचित विकास की जरूरत होगी। इन शहरों में रोजगारों के पुराने और नए विकल्पों पर विचार किया जा सकता है। जिन शहरों में पहले से सड़कें हैं, दूसरे साधन हैं, आधा-अधूरा ही सही, कुछ बुनियादी ढांचा मौजूद है वहां का विकास हो। सफाई, सुरक्षा, शिक्षा आदि की उचित व्यवस्था हो, तब शायद पूरे देश का विकास करना ज्यादा आसान होगा। पुराने शहरों में वर्षा जल संचयन और सौर ऊर्जा से बिजली बनाना एक अच्छा प्रयोग हो सकता है। जहां जिस चीज की पैदावार होती है, अगर उसके उत्पाद वहीं बनाए जाएं तो इन उत्पादों का सही और सस्ता उपयोग हो सकता है। आजकल होता यह है कि अगर आलू की अधिक फसल हुई है तो कई बार किसानों को मंडी में उसका उचित मूल्य नहीं मिलता तो वे उसे सड़कों पर फेंक देते हैं, क्योंकि उसके उचित भंडारण की व्यवस्था नहीं है। गेहूं, प्याज, फलों, सब्जियों के मामले में भी हम ऐसा होता देखते हैं। एक तरफ फसल फेंक दी जाती है और दूसरी तरफ उपभोक्ता को वही चीज सौ रुपए किलो के भाव से खरीदनी पड़ती है। अब अगर ऐसा हो कि जहां आलू ज्यादा होता है वहां उसके उत्पादों को तैयार करने वाले कारखाने हों और भविष्य के भंडारण की व्यवस्था भी, तो लागत कम होने से ये उत्पाद उपभोक्ता को कम कीमत पर मिलेंगे। किसान को उसकी फसल का उचित मूल्य आसानी से मिल पाएगा। रोजगार के अवसर स्थानीय स्तर पर ही बढ़ेंगे। साथ ही भंडारण क्षमता होने से कुछ खराब भी नहीं होगा। भंडारण की व्यवस्था न होने के कारण ही ऐसा होता है कि कभी आलू पांच रुपए किलो मिलता है तो कभी तीस। कभी प्याज-टमाटर बीस रुपए किलो मिलते हैं और कभी सौ। कीमतों के इस उतार-चढ़ाव से किसानों को कोई फायदा नहीं होता सिवाय बिचौलियों के। इसीलिए फसलों का एक नक्शा बनाना जरूरी है।
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