कुमार प्रशांत जनसत्ता 10 जुलाई, 2014 : मोदी सरकार का पहला रेल बजट देश के सामने है। देश यही समझने में लगा है कि उसके सामने मंगलवार को जो रखा गया वह है क्या! नरेंद्र मोदी की रेलगाड़ी में मनमोहन सिंह का इंजन?
इस सरकार ने रणनीति यह बनाई है कि जो कुछ, जहां भी कम या गड़बड़ है उसे मनमोहन सिंह सरकार के सिर मढ़ दिया जाए! यह इसे अपनी चालाकी समझ रही है लेकिन इसका नतीजा हो रहा है कि यह सरकार, मनमोहन सिंह सरकार की छाया से बाहर नहीं आ पा रही है। तो कहें कि यह उसी सरकार की छाया-सरकार है? नया रेल बजट इसी को स्वीकार करने की घोषणा कर रहा है। इस बजट के बारे में अगर कुछ आशाजनक कहना हो तो मैं कहूंगा कि यह भारतीय रेल को उस दिशा में शायद कुछ तेजी से दौड़ाएगा, जिस दिशा में दौड़ने की बात कह-कह कर भी मनमोहन सरकार चल नहीं पाती थी। यह बजट सरल है, छोटा है और इसमें शब्दजाल बुनने की कम-से-कम कोशिश की गई है। बजट पेश होने के बाद, अपने बजट के बारे में बातें करने प्रधानमंत्री खुद प्रकट हुए और कहा कि उनकी सरकार को बजट बनाने का बहुत ही कम समय मिला। मुझे यह अच्छा लगा कि प्रधानमंत्री खुद सामने आकर, देश को अपने बजट की मुख्य बातें बताएं। यह प्रधानमंत्री के आत्मविश्वास का प्रतीक है और देश को भी और प्रशासन को भी इसकी बहुत जरूरत है। लेकिन देश को सबसे बड़ी जरूरत यह है कि उसे कोई बता सके कि इस सरकार की प्राथमिकताएं क्या हैं? यह सरकार कहती है कि इसे चलाने वाला रेलगाड़ियों में चाय बेचता था और इसलिए उसे रेल की पीड़ा का अंदाजा सबसे अधिक है क्योंकि इससे पहले कभी कोई ऐसा चाय वाला देश का प्रधानमंत्री नहीं बना था। तथ्य एकदम सही हैं लेकिन दावा गलत साबित हुआ जा रहा है। किसी चाय वाले से पूछें हम कि उसे रेलगाड़ी में सबसे अधिक तकलीफ क्या होती है तो वह कहेगा कि सबसे अधिक तकलीफ भीड़ से होती है, अंधेरे से होती है, उन पुलिस वालों और रेल के बाबुओं से होती है जो बिना पैसे की चाय पीते हैं। यह रेल बजट इनमें से एक भी तकलीफ का इलाज नहीं बताता है। अगर कहूं कि बजट में कहीं एक जगह भी रेलमंत्री ने चाय वालों का और उनकी दिक्कतों का जिक्र नहीं किया तो चाय वालों को- भूत और वर्तमान दोनों चाय वालों को- बुरा नहीं मानना चाहिए। चाय वालों की बात मैं कर रहा हूं तो उन आम लोगों की बात कर रहा हूं जो रेल के सहारे जीने की कोशिश करते हैं। आप बात किनकी करते हैं और नीतियां कैसी बनाते हैं? इस बजट को इसी आधार पर देखने की जरूरत है। रेल बजट कहता है कि एक बुलेट ट्रेन चलेगी जो मुंबई-अमदाबाद के बीच होगी। तेज गति वाली कई गाड़ियों की शुरुआत के लिए सौ करोड़ रुपयों का प्रावधान रखा गया है। इसके अलावा अट्ठावन नई गाड़ियां शुरू की जाएंगी, व्यापार की नजर से तेज सुरक्षित रेल गलियारों की संख्या बढ़ाई जाएगी। राजधानी एक्सप्रेस गाड़ियों में और गुणवत्ता के लिहाज से ए-1 और ए श्रेणी के रेलवे स्टेशनों पर वाइफाइ की सुविधा दी जाएगी। कुछ चुनिंदा स्टेशनों को विश्वस्तरीय बनाया जाएगा। खानपान की सुविधा में विश्वस्तरीयता लाई जाएगी, मतलब कि ब्रांडेड खाना-पीना स्टेशनों पर पहुंचाया जाएगा। एक मिनट में 7200 टिकटें बुक करने वाली इ-बुकिंग की सुविधा विकसित की जाएगी। साफ-सफाई की व्यवस्था पर चालीस फीसद अधिक खर्च किया जाएगा। ऐसा ही बहुत कुछ और भी। यह सब करना ठीक है, जरूरी है, क्योंकि बीमार आदमी को क्रीम-पाउडर हमेशा अच्छा लगता है ताकि उसकी बीमारी कम-से-कम छिपी तो रहे! कहूं तो बीमारियों को ढक कर रखने की यही पद्धति है जिसे आज हम विकास कहते हैं! बहुलेनीय सड़कें, जगमगाते हवाइ अड््डे, मॉल, खुद चढ़ने-उतरने वाली सीढ़ियां आदि देखते हैं हम और जुबान को लकवा मार जाता है! बजट के बाद कोई विशेषज्ञनुमा व्यक्ति कह रहा था कि बुलेट ट्रेन को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर हम न देखें, यह और कुछ नहीं, एक ‘टेक्नॉलिजिकल मार्वेल’ है। समाज में यह भी रहना चाहिए ताकि लोग तकनीकी कुशलता का नमूना देखें और अवाक रह जाएं! कोई यह पूछता नहीं है और कोई यह बताता भी नहीं है कि ऐसे अवाक कर देने वाले विकास के दायरे में कौन आता है? जवाब यह है कि समाज में जो सबसे संगठित हैं, सबसे मुखर हैं और सबसे ज्यादा रोता है, वह सारा कुनबा इस दायरे में आता है। उन्हें जरूरत और दिखावे का फर्क मालूम नहीं है। वे दिखावे की भूख को जरूरत बना कर पेश करते हैं और उनकी इस कमजोरी को हर सरकार भुनाती है। इसलिए कोई सवाल नहीं उठाता है- न कोई मनमोहन सिंह से पूछता था, न कोई नरेंद्र मोदी से पूछेगा। लेकिन मैं पूछना चाहता हूं कि यह विश्वस्तरीय क्या होता है? इस सरकार का यह प्रिय जुमला है जिसे वित्तमंत्री अरुण जेटली बार-बार दोहराते रहते हैं। कोई बताए कि विश्वस्तरीय क्या होता है। विश्व का मतलब क्या होता है- वही कि जो अमेरिका हमें बताना चाहता है कि हम ही तो विश्व हैं- हम जो करें वह सभ्यता, हम जैसे रहें वह विश्वस्तरीयता, हम जो बोलें वह ग्लोबल भाषा, हम जो लिखें-पढ़ें-सोचें वह आधुनिकता!
नहीं मोदी सरकार, आप हमें बक्श दें और हमें अपना भारतीय स्तर ही बनाए रखने दें। वह विकास काफी नहीं होगा क्या कि जिसमें पर्याप्त रोशनी मिले, धूप खिले और हवा बहे? खेतों में बिना जहर की फसलें उगें और उगाने वाले और खाने वाले के बीच ऐसा सीधा रिश्ता बनाने वाली व्यवस्था हो, जो न तो दलाली करे न दलालों के हाथ में रहे?विश्वस्तरीयता का यह नारा अगर गुलामी की मानसिकता की दूसरी अभिव्यक्ति नहीं है तो मैं कहना चाहता हूं, कि हमें भारतीय ही रहने दो और हमें उसी स्तर की चीजें दो! तो हमें यह भरोसा दो कि अब रेल का एक भी डिब्बा बिना रोशनी का नहीं रहेगा; कि किसी भी रेलगाड़ी में कोई भी खिड़की ऐसी नहीं होगी जो ठिकाने से बंद न होती हो और जिसका कांच टूटा न हो; कोई गाड़ी ऐसी नहीं होगी कि जिसके शौचालय में रोशनी न हो, जिसका दरवाजा ठीक से बंद न होता हो, कि जिसके नल में पानी न आता हो, कि पंखे चलते न हों। यह सब उस रेलगाड़ी का चित्र है जो इस देश में रात-दिन दौड़ रही है और अनगिनत लोगों को ढो रही है। लोग उसे ढो रहे हैं कि वह लोगों को? अब बुलेट का जमाना है क्योंकि बैलेट का बैटल तो हो चुका है। इसलिए रेलमंत्री ने बताया कि बुलेट ट्रेन का सपना हम साकार करेंगे। यह बुलेट ट्रेन कहां बनने वाली है, कितने में और कब तक बनने वाली है? इसके लिए जमीन कहां से आएगी? पैदावार वाली जमीन का रकबा वैसे ही छोटा होता जा रहा है। कितने विकास के लिए, कितनी जमीन लील जाएंगे हम? मुंबई-अमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन चलाने से पहले प्रधानमंत्री चाहें तो मुंबई-अमदाबाद के बीच की विशिष्ट गाड़ी गुजरात मेल के सामान्य डिब्बे में सफर कर देखें कि उसकी कैसी हालत है! वे अपने बनारस के रास्ते में चलने वाली गाड़ियों का हाल देखें और फिर हमें बताएं कि इस ‘टेक्नॉलिजिकल मार्वेल’ की कोई जरूरत है? यह सारा कुछ करने के लिए रेलवे पैसा कहां से लाएगा? 65,445 करोड़ रुपयों का यह स्वप्नदर्शी बजट कहता है कि उसे इस काम के लिए तीस हजार करोड़ रुपयों की मदद सरकार से चाहिए। मतलब, बजट से पहले टिकटों के दाम बढ़ा कर आपने हमारी जेब पहले ही काट ली, अब हमारे टैक्स के पैसों पर भी नजर गड़ी है! जिस पीपीपी की बात जोर-जोर से की जा रही है, उस ‘पी’ में सरकार कहां आती है? उसने खुद को ही पब्लिक घोषित कर लिया है और पब्लिक को प्राइवेट बना दिया है! यह कैसी पार्टनरशिप है जिसमें आप ही राजा और आपका ही राज! इसीलिए इस पीपीपी के जाल में कोई फंसता नहीं है! हमारे लोग सफाई की समझ कम रखते हैं, इसलिए बहुत जरूरी है कि रेलगाड़ियां, बाहर और भीतर से डिब्बे, शौचालय, प्लेटफॉर्म, स्टेशन की सीढ़ियां, खाने का सामान बेचने वाले खोमचे और ठेले और उनका परिसर साफ-सुथरा रखा जाए! सफाई के पोस्टर बना कर बहुत देख लिया हमने, अब सफाई रख कर देखें। रेलवे हमारे सबसे गंदे उपक्रमों में एक है। रेलवे हमारे सबसे भ्रष्ट उपक्रमों में एक है। इसकी सफाई हो तो कुछ बात बने! लोग सफाई का आनंद और उसकी सुविधा देखेंगे और रेल प्रशासन की थोड़ी सख्ती भी रहेगी तो सफाई आदत में शुमार हो जाएगी। उनके रेल बजट में भी ऐसा कुछ नहीं कहा जाता था, इनके रेल बजट में भी ऐसा कुछ नहीं कहा गया है। भारतीय रेल (विश्वस्तरीय नहीं!) को तीन स्तरों पर काम करना चाहिए और हर सरकार का बजट-संकल्प भी यही होना चाहिए: समय, सुरक्षा, सुविधा! रेलमंत्री दावा करें कि उनके कार्यकाल में कोई भी रेलगाड़ी देरी से नहीं चलेगी; दावा करें कि उनके कार्यकाल में रेल दुर्घटना नहीं होगी और ट्रेन के भीतर बैठे सारे यात्रियों का जान-माल सुरक्षित रहेगा। मैं जब जान की सुरक्षा की बात कह रहा हूं तो उसमें लड़कियों की शारीरिक सुरक्षा शामिल है। रेलमंत्री दावा करें कि उनके कार्यकाल में हर रेलगाड़ी में वे सारी जरूरी सुविधाएं समान रूप से मिलेंगी जिनसे मनुष्य मनुष्य की तरह यात्रा कर सके! ये तीन दावे जो रेलमंत्री करेगा वही सही बजट बना सकेगा। बाकी तो आंकड़ों के खेल हैं, लालबुझक्कड़ का झोला है, कहीं की र्इंट कहीं का रोड़ा है, आपने रेल बजट में कुछ-का-कुछ ला जोड़ा है!
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