असीम सत्यदेव जनसत्ता 06 जुलाई, 2014 : राजकिशोर के लेख ‘देर से आए, जल्दी जाएंगे’ (जनसत्ता, 18 जून) में यह माना गया है कि ‘‘भारत के मुसलिम समाज ने भी अपनी ओर से हिंदू समाज की ओर दोस्ती का हाथ नहीं बढ़ाया है। कई बार मेरे मन में आता है कि मुसलमानों के शीर्ष प्रवक्ताओं ने अगर भारत में मुसलिम राज और भारत विभाजन के लिए माफी मांग ली होती तो वातावरण बहुत हद तक तनावहीन हो सकता था। यह अब भी हो सकता है। मुसलिम राज की हम जैसी भी व्याख्या करें, भारत के लिए वह पराया और अल्पसंख्यक राज था। हिंदू बहुमत ने उसे अपने शासन के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया। इतिहासकार चाहे जितना शीर्षासन करते रहें, घटनाएं उसी से प्रभावित होती हैं, जो जनसाधारण के मन में चलता रहता है।’’ गांधी और लोहिया के वैचारिक चिंतन से प्रभावित राजकिशोरजी ‘मुसलिम राज’ की अवधारणा के जाल में फंस जाएं, यह अजीब विडंबना है। यह अवधारणा 1857 के संग्राम के बाद अंगरेजों ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत स्थापित की और अपने पाठ्यक्रम में इसे स्थापित भी किया। अंगरेज इतिहासकारों ने अशोक और उसके उत्तराधिकारी राजाओं के राज को ‘बौद्ध राज’ नहीं कहा। कनिष्क द्वारा स्थापित कुषाण-शासन या हर्षवर्धन के शासन को भी ‘बौद्ध-राज’ कह कर नहीं संबोधित किया। गुप्त राजाओं के शासन को ‘वैष्णव राज’ नहीं बताया। इसी तरह किसी शासन को ‘शैव-राज’ या ‘जैन-राज’ नहीं कहा। इन सबको मिला कर उन्होंने ‘हिंदू-राज’ की अवधारणा बनाई। इसके बाद दिल्ली सल्तनत की सत्ता से बहादुरशाह जफर के काल को ‘मुसलिम-राज’ नाम दे दिया। लेकिन अपने शासन को अंगरेजों ने कभी ईसाई-राज नहीं कहा। अपने शासन को अंगरेज धार्मिक सत्ता द्वारा संचालित राज नहीं घोषित करना चाहते थे और यह दिखाना चाहते थे कि उनके आने से पहले भारत में धर्मसत्ता के अनुसार शासन चलता था और राजा या बादशाह जिस धर्म का था उस धर्म के लोगों को शेष लोगों पर वरीयता हासिल थी। इस अवैज्ञानिक, अधकचरी अवधारणा का खंडन इसकी स्थापना के साथ ही होने लगा था। अगर अंगरेजों के आने से पहले भारत में ‘मुसलिम राज’ था, तो बहादुरशाह जफर के नेतृत्व में कुंवर सिंह, नाना साहब, लक्ष्मीबाई सहित भारत के लाखों किसान और मंगल पांडे जैसे सिपाही स्वाधीनता-संग्राम में भाग लेने के लिए क्यों तैयार हुए? इससे भी बड़ा सवाल था कि अगर कई सौ वर्षों तक भारत में ‘मुसलिम राज’ था, तो हिंदू जनता ने उसके विरुद्ध संघर्ष क्यों नहीं किया? अंगरेज इतिहासकार ढूंढ़ते ही रहे, लेकिन उन्हें मुसलिम शासन के विरुद्ध हिंदू जनता के संघर्ष का कोई ठोस उदाहरण नहीं मिला। जनता ने जिन्हें विदेशी समझ कर संघर्ष किया वे थे- यूनानी, अंगरेज और पुर्तगाली। इस सत्य को देख कर अंगरेज इतिहासकारों ने राजाओं के बीच संघर्षों को ही धार्मिक संघर्ष का रूप दे दिया। मोहम्मद गोरी बनाम पृथ्वीराज चौहान, बाबर बनाम राणा सांगा, अकबर बनाम राणा प्रताप, आदि संघर्षों को इस तरह पेश किया गया जैसे यह मंदिर बनाम मस्जिद का संघर्ष हो, जबकि ये सारे संघर्ष राजाओं के स्वाभाविक क्रियाकलाप राज-विस्तार और राज-रक्षा के परिणाम थे। अंगरेज इतिहासकार एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथ्य को नहीं देख सके। यह था भारतीय शासन की विकेंद्रित सत्ता-व्यवस्था। दरअसल, रेल जैसे यातायात और डाक-तार जैसी संचार व्यवस्था से पहले के भारत में गांव के किसान और अन्य ग्रामीण जन यह सोच भी नहीं सकते थे कि गांव पंचायत के फैसले के खिलाफ नगर प्रशासन या न्यायालय में अपील करें और वहां भी इंसाफ नहीं मिले तो केंद्रीय सत्ता या उच्चतम न्यायालय जैसे संस्थान में इंसाफ की गुहार करें। भारतीय राजा
और सामंत भी ऐसी व्यवस्था के अनुसार शासन करने की नहीं सोचते थे। जनता के लिए उनका गांव (बहुत हुआ तो आसपास के ग्रामीण क्षेत्र) ही उनकी इंसाफ स्थली था। गांव की सीमा, नदी, पहाड़ पार किया, तो यह उनके लिए ‘परदेश’ जाना होता था। भारत में केंद्रीय शासन मगध का हो, दिल्ली या आगरा का, उसका कार्यभार स्थानीय शासन और रीति-रिवाजों में दखलंदाजी करना नहीं था। स्थानीय शासन उसकी अधीनता स्वीकार करे, राजकोष के लिए निर्धारित राशि भेजता रहे और केंद्र के आदेश पर सेना भेजने और सैन्य-गतिविधियों में भागीदारी करे, यही केंद्रीय शासन चाहता था। ऐसे में राजा या बादशाह किस देवता की पूजा करता है, उसकी उपासना पद्धति कैसी है, इसका थोड़ा-बहुत असर पड़ता था, लेकिन इतना नहीं कि स्थानीय राम-रहीम इसमें दिलचस्पी लेने लगें। इन्हीं परिस्थितियों में शेरशाह सूरी के बाद के माहौल में हेमू शासक बना और मुसलिम जनता को किसी प्रकार की बेचैनी महसूस नहीं हुई और यही हेमू जब पानीपत की दूसरी लड़ाई में अकबर से पराजित हुआ तो इस तरह मुगल शासन की वापसी से भारत के सत्तारूढ़ पठान वर्ग में शायद बेचैनी फैली हो, पर हिंदू जनता को कोई फर्क नहीं पड़ा। राजघरानों में सत्ता की उठापटक, षड्यंत्र आदि से जनता के मन में उनके प्रति अच्छी धारणा नहीं थी। जन-उत्पीड़न और शोषण के मामले में हिंदू या मुसलिम शासक में कोई विभाजक रेखा नहीं थी। इसलिए उस समय जनता ने हिंदू या मुसलिम राज के रूप में किसी शासन को ग्रहण नहीं किया। हिंदू या मुसलिम राज की अवधारणा चूंकि अंगरेजों ने स्थापित की और उसी के अनुसार शैक्षिक पाठ्यक्रम तैयार किए, इसलिए ब्रिटिशकालीन भारत में हिंदू यह समझता रहा कि अंगरेजी शासन से पहले उसके ऊपर मुसलमानों ने शासन किया और गरीब मुसलमान के अंदर भी यह भाव पैदा हुआ कि अंगरेजों के शासन से पहले भारत में उसका शासन था। लेकिन इस अघोषित मिथ्या धारणा के बावजूद जनता के मन में रोटी, सिले हुए कपड़ों के प्रति लगाव था, जो मुसलमान लाए थे। खरबूजा, पराठा, शहनाई, सब कुछ हिंदू समाज ने खुशी से ग्रहण किया। वीणा में दो तार जुड़ कर उसे सितार बनाया गया, जिसे हिंदू संगीतकारों ने लगन से बजाया। मल्ल-युद्ध का कुश्ती में रूपांतरण का भी स्वागत हुआ। गंगा-यमुनी संस्कृति में इतने जल-प्रवाह मिले कि पता ही नहीं चल पाया कि कौन हिंदू संस्कृति है और क्या मुसलिम समाज से मिले रीति-रिवाज और सभ्यता-संस्कृति से आया है। हम भारत के मुसलिम समाज से उस गुनाह के लिए माफी मांगने का आग्रह क्यों करें, जो उसने किया ही नहीं।
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