नवल किशोर जनसत्ता 06 जुलाई, 2014 : कथाकार स्वयं प्रकाश ने अपने नए कहानी संग्रह का नाम दिया है- मेरी प्रिय कथाएं। कहानी के बदले ‘कथा’ शब्द का प्रयोग उन्होंने विशेष अभिप्राय से किया है। लोककथाओं जैसी आधुनिक कहानियां, जिन्हें पढ़ने से ज्यादा सुनने में मजा आए। यों स्वयं प्रकाश खुद अपनी कहानियों के दक्ष वाचक हैं- सुनाने की कला में माहिर। उन्हें लगता है कि हिंदी भाषा और हिंदीभाषी समाज लोककथाओं का निर्माण करना भूल गया है। पर सच यह है कि अब लोककथाओं का निर्माण संभव ही नहीं है। क्या यह सच नहीं है कि समाज-विशेष के व्यतीत हो जाने पर उसके कला-रूप भी व्यतीत हो जाते हैं- उन्हें केवल अतीत-निधियों की तरह संरक्षित और अविस्मरणीय स्मृतियों के रूप में ही सुरक्षित रखा जा सकता है। उन माध्यमों को लेकर नया कुछ रचा जाएगा तो नए प्रयोग के रूप में वे प्रशंसित होंगे और चमत्कृत भी करेंगे; लेकिन इससे पुरानोंं को लौटा नहीं पाएंगे। बहरहाल, स्वयं प्रकाश की चिंता अपनी जगह सही है कि अगर कहानीकार समाज से व्यापक जुड़ाव चाहता है तो उसे लोककथा जैसी सरलता और रोचकता की बानगी अपनी कहानियों के जरिए हाजिर करनी ही होगी। संग्रह में बारह कहानियां हैं। इनमें तीन-चार जरूर लोककथा-पद्धति वाली कही जा सकती हैं, तीन-चार सीधे-सरल प्रवाह वाली भी हैं, लेकिन बाकी ऐसी हैं, जो पाठक से थोड़ी समझदारी की अपेक्षा रखती हैं। लोककथा पद्धति की सबसे उत्तम बानगी देने वाली है पहली ही कहानी- ‘जंगल का दाह’। धनुर्विद्या के लिए वनवासी मामा सोन की ख्याति, राजकुमार का शिक्षा के लिए उनके पास आना, अभ्यास में सफल न होने पर मामा सोन को ही खत्म करने की कोशिश, ताकि कोई और सीख न पाए, सोन शिष्यों और वन के पशु-पक्षियों द्वारा मिल कर राजसैनिकों को खदेड़ना, लेकिन जाते-जाते उनके द्वारा जंगल में आग लगाना- न मामा सोन को बचाया जा सका और न उनकी धनुर्विद्या को, पर बचे राजा और उसके वफादार सैनिक भी नहीं। लेखक यहीं कहानी का अंत नहीं करता, उसे आगे ले जाता है और कहानी को आज के राजन्य वर्ग द्वारा आदिवासियों को उजाड़ने की संकेत-कथा बना देता है। अंत होता है इस समाचार के साथ- ‘सुना है... मामा सोन के वंशजों और शिष्यों को जंगल से हकाल दिया गया है।’ यह लेखकीय हस्तक्षेप कहानी को अन्याय के इतिहास क्रम में रखते हुए उसे समकालीन राजनीतिक यथार्थ का एक पाठ बना देता है। इस तरह का लेखकीय हस्तक्षेप कहानी में तभी सार्थक रहता है, जब वह कहानी की अंतर्प्रकृति के साथ मेल खाता है, अन्यथा वह आरोपित-सा लगने लगता है जैसा कि ‘कानदांव’ कहानी में। कहानीकार जहां बिना ऐसे किसी हस्तक्षेप के लोककथा पद्धति अपनाता है, वहां एक अच्छी रचना की संभावना अधिक रहती है, जैसा कि ‘गौरी का गुस्सा’ के साथ हुआ है। औढरदानी शिव की पौराणिक कथा-शैली में लिखी गई यह कहानी हमारे युवा वर्ग को बिना कुछ कहे भी सार्थक संदेश देती है कि अगर उसे अपनी दुनिया को बेहतर बनाना है तो किसी चमत्कार के भरोसे रहने के बजाय खुद को जिम्मेदार समझते हुए कुछ करना भी होगा। भूमिका यह भ्रम देती है कि संकलित सभी कहानियां लोककथा-सी सरल और सहजग्राह्य होंगी, लेकिन पुस्तक का संयोजन तदनुरूप नहीं है। इसमें ऐसी कहानियां ज्यादा हैं, जो पाठक से अपने समय और समाज की अभिज्ञता के साथ साहित्यिक संस्कारिता की मांग करती हैं। इनमें ‘प्रतीक्षा’ संग्रह की उल्लेखनीय कहानी है। यह सैमुअल बैकेट के नाटक ‘वेटिंग फॉर गोडो’ नाटक की कथावस्तु का लेखक द्वारा किया गया एक पाठांतर है, जो सर्जनात्मक प्रयोग का एक उत्तम उदाहरण बन गया है। बैकेट का नाटक आत्मिक या वैयक्तिक प्रतीक्षा का एक अंतहीन उवाच है, तो स्वयं प्रकाश की कहानी पिछली सदी के आखिरी दौर में युवा वर्ग की हताश प्रतीक्षा को लेकर दिया एक बयान है। आर्थिक उदारीकरण के साथ बढ़ती बेरोजगारी से त्रस्त शिक्षित युवा वर्ग भविष्य की त्रासद प्रतीक्षा के लिए तो विवश है ही, जीविका के अभाव के कारण और साथ ही सामाजिक रूढ़िवाद के चलते युवक-युवती का प्रेम भी एक अंतहीन प्रतीक्षा में बदल जाता है। कहानी में कॉलेज शिक्षा और खासकर हिंदी शिक्षण में व्याप्त जड़ता और भ्रष्टता को भी उजागर किया गया है। यह एक राजनीतिक सामाजिक व्यंग्य रचना है- बहुस्तरीय व्यंग्य की। ‘मंजू फालतू’ योग्यता-प्राप्त नई
लड़की की कहानी है। वह करिअर को चुनती है, तो मातृत्व नहीं निभता और मातृत्व को तरजीह देती है, तो कैरियर को दांव पर लगाना होता है। मंजू की कहानी पुरुष वर्चस्व की घिसी-पिटी कहानी नहीं है, वह जो भी फैसला करती है अपनी इच्छा से करती है। उसने शादी की और बच्ची हुई। उसका न इरादा था और न मन, पर नौकरी छोड़नी पड़ी, क्योंकि बच्ची को लेकर या छोड़ कर दफ्तर नहीं जाया जा सकता था। इससे पहले कि बच्ची इतनी बड़ी होती कि नौकरी फिर कर पाती, वह दुबारा गर्भवती हो जाती है- ‘अब इसकी शिकायत तो वह भगवान से ही कर सकती थी।’ बच्चों के कुछ बड़ा होने के बाद फिर से नौकरी करनी चाही तो पाया कि ज्ञान और तकनीक के नित नए होते उसकी योग्यता क्षेत्र में अब एप्लीकेशन के कॉलम में उसके पास ‘फालतू’ लिखने के अलावा कुछ नहीं बचा है। लेखक ने मंजू को न एक नाराज औरत बनाया है और न दयनीय। उसने उसकी परेशानी को उसके बच्चों के हास्य का विषय बनाते हुए और पारिवारिक संस्पर्श देते हुए पेश किया है। ‘बलि’ बहुत कमजोर रचना है। यह विमर्शवादी दबाव में लिखी गई कहानी लगती है, एक निम्नवर्गीय गरीब बच्ची एक भद्र परिवार में घरेलू नौकरानी रह चुकने के बाद वापसी पर अपने परिवेश और परिवार में कहीं खप नहीं पाती और इस वजह से उसकी आगे की जिंदगी एक शोककथा बन जाती है। इस विषय पर पहले भी कुछ अच्छी कहानियां लिखी गई हैं। स्वयं प्रकाश ने बस इतना किया है कि उसे विकास-विस्थापित एक आदिवासी परिवार की बच्ची बना दिया है और बताया है कि शादी के बाद पति-प्रताड़ना का प्रतिवाद करने के अपने मूल सामाजिक स्वभाव को भूल कर वह मध्यवर्गीय लड़की की तरह गले में फंदा डाल कर छत से लटक कर अपनी बलि दे देती है। यह उसी यथार्थवादी प्रकृति की कहानी है, जिसमें स्त्री पुरुष अत्याचार का एक आसान शिकार भर होती है- यह न आदिवासी समाज का सच है और न आज की स्त्री-सशक्तीकरणवादी साहित्यिक चेतना का। स्वयं प्रकाश की शैली में हास्य व्यंग्य रसा-बसा होता है। ज्ञानरंजन के समान उन पर भी परसाई के लेखन का गहरा प्रभाव है। लेकिन संकलन में दो कहानियां ऐसी भी हैं जहां व्यंग्य गौण और हास्य मुख्य है। ‘नाचने वाली कहानी’ में नौकरशाही जड़ता पर व्यंग्य से ज्यादा ‘नाचने’ शब्द के श्लेष को लेकर खेल है, तो ‘बाबूलाल तेली की नाक’ में जातिवाद पर प्रहार से अधिक ‘नाक’ शब्द के ध्वन्यर्थ पर क्रीड़ा है। स्वयं प्रकाश अपने को दोहराने से बचते हैं। अक्सर होता यह है कि एक बड़ा लेखक भी कालांतर में अपने ही शिल्प का कैदी हो जाता है और अपने को दोहराने लगता है। इस संकलन से साफ जाहिर होता है कि स्वयं प्रकाश लीक बदल रहे हैं। सूचनाओं की फेहरिस्त वाली लंबी कहानी के फैशन में वे नहीं बहे। प्रभावान्विति वाली सुगठित कथा-रचना पर अपनी पकड़ को मजबूत बनाए रखते हुए लोककथा-परंपरा से प्रेरणा लेकर जो चंद कहानियां उन्होंने यहां दी हैं, वे भले उनकी कुछ आला कहानियों जैसे ऊंचे दर्जे की न हों, लेकिन नए तर्ज की जरूर हैं। उनका यह प्रयास न केवल उनकी रचनात्मकता को नया कर रहा है, कहानी को थोड़ा सुगम बनाते हुए साहित्य के पाठकों का दायरा बढ़ाने की आज की जरूरत को भी अपने स्तर पर पूरा करता है। मेरी प्रिय कथाएं: स्वयं प्रकाश; ज्योतिपर्व प्रकाशन, 99, ज्ञानखंड-3, इंदिरापुरम, गाजियाबाद; 299 रुपए।
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