अशोक वाजपेयी
जनसत्ता 22 जून, 2014 : यों तो गोवा विश्वविद्यालय में अतिथि आचार्य होने के नाते वहां वर्ष में कुछ दिनों के लिए पढ़ाने जाना होता है, इस बार गोवा में छोटा-सा प्रवास दो कला-शिविरों के सिलसिले में हुआ। गोवा ऐसे अंतरंग आयोजनों के लिए बहुत अनुकूल है: वहां के लोग उत्सुक और मददगार होते हैं और दूरियां कम हैं: शिविरों से निकल भागने का प्रलोभन कम होता है। एक शिविर में कैमल आर्ट फाउंडेशन ने देश के बारह क्षेत्रों से बारह युवा चित्रकार चुने थे और उनका शिविर था, जिसमें चार सार्वजनिक व्याख्यान भी थे, जो सुबोध केरकर, सदानंद मेनन, नमन अहूजा और मैंने क्रमश: ‘समकालीन कला के माध्यम से इतिहास’, ‘कलाएं और मीडिया’, ‘भारतीय कला में पवित्र काया’ और ‘कला क्यों’ विषयों पर दिए। अन्यत्र ‘टेक आन आर्ट’ पत्रिका ने रज़ा फाउंडेशन के सहयोग से युवा कला-लेखकों का एक शिविर आयोजित किया, जिसमें सदानंद मेनन और मेरे अलावा राम रहमान, भावना कक्कड़ और देश भर से चुने गए कुछ युवा कलालोचकों ने भाग लिया। समकालीन भारतीय कला-चिंतन की एक बड़ी समस्या यह है कि वह पूरी तरह पश्चिमी आधुनिक कलाचिंतन से आक्रांत चिंतन है और उसमें इस बात की भनक तक नहीं है कि हमारे यहां सदियों से कलाचिंतन होता रहा है और उसकी कई अवधारणाओं और प्रत्ययों का हम अपने समय और कला को समझने-बूझने के लिए पुनराविष्कार कर सकते हैं। यह कठिन काम है और जिस तरह के आलोचनात्मक उद्यम और बौद्धिक सख्ती की मांग करता है उनका खासा अभाव है। कई बार यह भी लगता है कि बहुत सारी आलोचना किसी कलाकृति या किसी कलाकार के काम की अतिव्याख्या करती है और ऐसे अर्थ खोज निकालती है, जिनका सहज बोध सामान्य कलारसिकों को नहीं होता और जिसे वे देख-समझ नहीं पाते। ऐसे प्रतिभाशाली युवा हैं, जो इतने सिद्धांत-रसिक हैं कि वास्तविक कलाकृतियां देखने से दूर ही रहते हैं और ऐसे भी हैं, जो स्वयं कलालोचना की भारतीय अंगरेजी परंपरा तक से सुपरिचित नहीं हैं। कई बार ऐसा लगता है कि उनमें से कुछ दूसरे कलालोचकों के लिए ही लिख रहे हैं: उनका संबोधी और कोई नहीं है। संप्रेषणीयता का प्रश्न हमेशा से उलझा हुआ रहा है। रचना संप्रेषणीय न हो तो भी आलोचना को हर हालत में संप्रेषणीय होना चाहिए ऐसी सामान्य अपेक्षा रही है। उत्तर-आधुनिकता ने प्राय: आलोचना को भी रचना की ही तरह जटिल, अबूझ और असंप्रेषणीय बनाने में कुछ भूमिका निभाई है। स्वयं सैद्धांतिकी ऐसा अनुशासन बन गई कि उसका रचना या कृति से कोई संबंध ही मानो नहीं रह गया। चूंकि हम थोड़ा विलंबित गति से ही चलते हैं, भले अनुगमन या अनुकरण ही क्यों न कर रहे हों, तो इसमें भी हम पिछड़े हुए हैं। एक तरह की सिद्धांत-रति दृश्य पर सक्रिय है, भले, सौभाग्य से, हाशिये पर ही है।
संप्रेषण की उलझनें हम किसके लिए लिखते हैं और जिनके लिए लिखते हैं उनमें से कितनों तक वह पहुंच पाता है, ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका कोई भी लेखक कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाता। कुछ लोग यह कह कर छुट्टी पा लेने का नाट्य करते हैं कि वे तो अपने लिए लिखते हैं: इसमें सच्चाई है कि जो लेखक अपने लिए नहीं लिखता वह दूसरों के लिए भी शायद ही लिख पाए। पर लिखते समय अपने-दूसरे का भेद इतना सीधा नहीं होता। इस तर्क में भी बल है कि जब लेखक का एक हिस्सा लिख रहा होता है तो उसका दूसरा हिस्सा उसे बांच-समझ रहा होता है। आगे जाकर यही दूसरा हिस्सा वे लोग हो जाते हैं, जो उस लिखे हुए को पढ़ते-समझते हैं। यह आरोप अब काफी कमजोर पड़ गया है कि जो आम आदमी के लिए नहीं लिखता, उसके लिए लिखना एक जनधर्मी काम नहीं, निरी ऐयाशी है! ऐसा नहीं है कि ऐसा लेखन नहीं है या होता है, जिसमें जटिलता सच्चाई की जटिलता का इजहार नहीं, बल्कि असावधानी, अपरिपक्वता, नासमझी, आलस्य या माध्यम पर अपर्याप्त अधिकार से उपजती है। लेकिन दूसरी ओर, यह भी सही है कि साहित्य के कई पाठक उसे अखबार की तरह पढ़ना चाहते हैं और अपनी ओर से समझने के लिए कोई उद्यम नहीं करना चाहते। सबको समझ में आने वाले प्रेमचंद के मुकाबले ऐसे बहुत से बड़े लेखक हैं, जो आसानी से संप्रेषित नहीं होते हैं जैसे निराला, जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, गजानन माधव मुक्तिबोध आदि। हमें अपनी साहित्यिक संपदा में ये सभी चाहिए: अकेले प्रेमचंद और नागार्जुन से काम नहीं चलता। कविता में संप्रेषण की बहस यों तो पुरानी है। लेकिन इधर तथाकथित सोशल मीडिया के उदय और विस्तार ने संप्रेषणीयता को युवाओं के लिए एक परम मूल्य ही बना दिया है। इस समय उस पर प्रसारित कविता और मंतव्यों में अभिधा की लगभग तानाशाही-सी है- भाषा की अन्य शक्तियों को लगभग देशनिकाला-सा मिल रहा है। इस पर विचार करने की जरूरत है कि क्या सच्चाई, अनुभवों और दृष्टियों का यह सरलीकरण हमारे साहित्य की अर्थवत्ता को, उसकी निरंतरता को लगभग सतहीपन और सनसनी में घटा रहा है। सीधे-सीधे कहना एक जटिल काम
है और कई बार ऐसा कहने के लिए कविता उपयुक्त माध्यम नहीं भी हो सकती है। इधर लंदन में पता चला कि एक विश्रुत कविता-पुरस्कार के निर्णायक-कवि ने आज की ब्रिटिश कविता के तथाकथित आम आदमी से दूर चले जाने की बहस उठाई है। कई तर्क-प्रतितर्क उठ रहे हैं वह भी लोकप्रिय अखबारों में। कविता ने स्वयं अपनी अप्रासंगिकता हासिल करने में गोपनीय सहयोग किया है। आम आदमी एक अमूर्तन है, जिसके कोई ठोस संस्करण किसी समाज में नहीं होते। अगर कोई कला तक नहीं उठना चाहता तो कला उसके पास पहुंच भी नहीं सकती। आम आदमी भले न होता हो, लेखकीय शिष्टाचार इसमें है कि वह मान कर चले कि होता है। अगर कोई किसी पाठ की जटिलता से निपटने के लिए कुछ प्रयत्न, कुछ बौद्धिक-संवेदनागत संघर्ष और उद्यम करता है, तो उसका दिमाग खुलेगा अन्यथा वह कड़ा और संकुचित हो जा सकता है। आज के माहौल में सब कुछ तुरंता हुआ जा रहा है: भोजन, मनोरंजन, खबर, राजनीति तो कुछ को तो कठिन रहना चाहिए। कविता और साहित्य उन्हीं में से हैं।
पुनर्जन्म ऐसे लेखक होते हैं, जो अकस्मात लेखक बन जाते हैं, जैसे कि ऐसे भी होते हैं जिन्हें अपने जीवन के लगभग आरंभ में ही पता चल जाता है कि उन्हें लेखक या बुद्धिजीवी होना है। अमेरिकी लेखिका सूसन सौण्टैग को अपने लेखकीय भविष्य का पूर्वाभास चौदह-पंद्रह वर्ष की आयु में ही हो गया था। उन्होंने 1947 से ही एक डायरी लिखनी शुरू कर दी थी, जबकि उनकी आयु कुल चौदह वर्ष की थी। 1947 से 1963 की डायरियां हाल ही में पेंगुइन ने ‘रिबार्न’ के नाम से प्रकाशित की हैं। उसमें पहला ही इंदराज है: ‘मैं विश्वास करती हूं (क) कि मृत्यु के बाद कोई निजी ईश्वर या जीवन नहीं होता; (ख) कि दुनिया में सबसे वांछनीय चीज है अपने प्रति ईमानदार हो सकने की स्वतंत्रता यानी ईमानदारी, (ग) मनुष्यों के बीच बुद्धि के अलावा कोई और फर्क नहीं होता।’ 1956 में सूसन ने नोट किया: ‘संसार एक अद्वितीय चीज है- इसी अर्थ में उसकी कोई सरहद नहीं है।’ आगे उन्होंने लिखा कि ‘वे उन्हीं दार्शनिकों को पसंद करती हैं, जो कोई व्यवस्था बनाने से इनकार करते हैं जैसे प्लेटो, नीत्शे और विटगेंस्टाइन।’ 1949 में उन्होंने लिखा: ‘मैं जानती हूं कि मुझे अपनी जिंदगी के साथ क्या करना है, सब कुछ इतना सीधा है, जबकि अतीत में मेरे लिए यह इतना मुश्किल था। मैं कई लोगों के साथ सोना चाहती हूं- मैं जीना चाहती हूं और मरने से मुझे नफरत है- मैं पढ़ाऊंगी नहीं, न ही बीए करने के बाद मास्टर्स की डिग्री हासिल करूंगी।... मैं अपनी बुद्धि अपने ऊपर छाने नहीं दूंगी और जो आखिरी चीज मैं करना चाहूंगी वह है ज्ञान या ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों की पूजा।’ इसी इंदराज में वे आगे जोड़ती हैं: ‘अपने शरीर को प्यार करना और उसका ठीक उपयोग करना यह प्राथमिक है। मैं जानती हूं कि मैं यह कर सकती हूं, क्योंकि मैं अब मुक्त हो गई हूं।’ उसी दिन, बाद में, वे फिर अपनी डायरी में दर्ज करती हैं: ‘कुछ भी, कुछ भी नहीं है, जो मुझे कुछ भी करने से रोक सके सिवाय अपने खुद के।’ सौण्टैग छोटी उमर से ही बेहद पढ़ाकू थीं। जीवन की पहली बीसी पूरी करने के बहुत पहले उन्होंने जेम्स ज्वायस, प्रूस्त, टामस मान, रिल्के, टाल्सटाय, दोस्तोवस्की आदि की कृतियां पढ़ डाली थीं। उन पर उनकी प्रतिक्रियाएं भी इन डायरियों में जहां-तहां दर्ज हैं। टाल्सटाय के उपन्यास ‘युद्ध और शांति’ के बारे में वे लिखती हैं कि उनकी बुनियादी थीम है नायक-विरोधी महाकाव्य का अतिजीवन। कुटुज़ोव राष्ट्रीय स्तर पर वि-नायक है, जो नायक नेपालियन पर विजय प्राप्त करता है। व्यक्तिगत स्तर पर वि-नायक पीएरे नायक आंद्रे पर हावी होता है। 1957 में वे यह निश्चय करती हैं कि ‘उनके दिमाग में जो अण्ड-बण्ड आता है वह सब वे लिखेंगी। उच्च संस्कृति से बहुत समय तक पोषित होने से एक किस्म का मूर्ख अभिमान आ जाता है। मुझे मुंह का दस्त और टाइपराइटर की कब्जियत है। इसकी चिंता नहीं कि वह खराब है। लिखना सीखना लिखने से ही आता है। यह बहाना कि आप सोच रहे हैं ठीक नहीं है।’ पुस्तक की समाप्ति के निकट यह दिलचस्प उक्ति दर्ज है: ‘हर दर्द जानता है अपने सुख को कैसे पाना’।
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