श्रीभगवान सिंह जनसत्ता 21 मई, 2014 : मेरे यहां हृदय कुमार नाम का एक युवक दूध देता है। जब भी वह हाथ में दूध का बर्तन लिए आता है, उसके चेहरे पर कर्मजनित खुशी की चमक दिखती है। उससे अक्सर हम पति-पत्नी का संवाद होता रहता है। एक दिन बर्तन में दूध उड़ेलते हुए उसने कहा, ‘सरजी, कल मेरे एक साथी ने कहा कि क्यों बी-कॉम की डिग्री लेकर गाय पालने जैसा गंवारू काम करते हो? इससे बेहतर है कि चार-पांच कंप्यूटर खरीद कर साइबर कैफे खोल लेते और मजे की जिंदगी जीते।’ यह कह कर उसने फिर अपने साथी को दिया जवाब सुनाया, ‘कंप्यूटर से पैसा तो कमा सकते हैं, लेकिन उससे दूध तो नहीं मिल सकता। पैसा किस काम का, अगर दूध-दही खाने को न मिले?’ मुझे लगा कि उसने अनजाने में ही कंप्यूटर-इंटरनेट व्याकुल संस्कृति को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है। मैंने जिज्ञासा जाहिर की- ‘क्या यह काम आप सचमुच खुशी-खुशी करते हैं या किसी लाचारीवश।’ हृदय कुछ सकुचाते हुए बोला- ‘दरअसल, पढ़ कर मैं भी नौकरी करना चाहता था। मैं फौज में भर्ती होना चाहता था, ताकि देश की सेवा कर सकंू। यह बात मैंने पिताजी को बताई, तो उन्होंने कहा कि देश की सेवा करना चाहते हो तो खेती करो और गाय पालो। आखिर हमारे सैनिकों को भी खाने के लिए अनाज और दूध चाहिए। उनकी बात मुझे जंच गई और नौकरी करने का विचार छोड़ कर मैं पूरे मन से इस काम में लग गया। आज मेरे पास कई गाएं हैं, जिनकी बदौलत सौ घरों को दूध पहुंचाता हूं। इसके साथ ही खेती से अनाज, सब्जियां पैदा कर लेता हूं।’ हृदय की बातें सुन कर मेरे सामने देश का वह इतिहास मूर्त हो उठा, जब भारत कृषि प्रधान और दूध की नदियों वाला देश कहा जाता था। यहां जो उद्योग थे, वे भी कृषि-सापेक्ष थे। आज भी इन्हीं किसानों की बदौलत सेना से लेकर सिविल सोसायटी के लोगों तक खाद्य सामग्री सुलभ हो पाती है। खेल-कूद, राजनीति, शिक्षा, नौकरशाही आदि क्षेत्रों में रोब झाड़ने वाले तमाम अभिजन इन्हीं मेहनतकशों की हाड़तोड़ मेहनत की बदौलत सुस्वादु भोजन और दुग्ध निर्मित नाना व्यंजनों का स्वाद ले पाते हैं। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी तक उससे अपना आहार प्राप्त करते हैं। यह किसान देश-सेवक से भी बढ़ कर समस्त प्राणियों का सच्चा सेवक होने की महती भूमिका निभाता आया है। लेकिन कालचक्र का ऐसा उलट-फेर है कि अधिरचना के चमकते-दमकते कंगूरों के समक्ष बुनियाद की र्इंट बनने में अपना जीवन खपा देने वाले ये किसान, ये पशुपालक लगातार उपेक्षित ही नहीं, विनाश की ओर धकेले जा रहे हैं। आज विकास का ऐसा पैमाना सामने आ गया है कि प्रकृति से रिश्ता रखने वाले, सृष्टि को अन्न के रूप में ‘प्रथम ब्रह्म’
का उपहार देने वाले किसान पिछड़े हाशिये की चीज समझे जाने लगे हैं और वातानुकूलित कक्षों में कंबल-रजाई ओढ़ कर सोने और प्रकृति से दूर रह कर कृत्रिम सुविधाओं का भोग करने वाले उन्नत, प्रगतिशील समझे जा रहे हैं। क्रिकेट और अभिनय के नाम पर कलाबाजियां दिखाने वालों के लिए ‘भारत रत्न’, ‘महानायक’ जैसी उपाधियां प्रदान करने के लिए हमारे देश के बुद्धिजीवी तक बेचैन हो उठते हैं। लेकिन खेती या पशु-पालन से जुड़े लोगों की दिनोंदिन शोचनीय होती जा रही दशा से इनका कोई सरोकार नहीं। पिछले दो दशकों से किसानों द्वारा लगातार की जा रही आत्महत्याएं हमारे नेताओं, बुद्धिजीवियों, अभिनेता-अभिनेत्रियों, खिलाड़ियों आदि को स्पंदित नहीं करतीं। आज विकास का चतुर्दिक कोलाहल है, जिसमें किसान की पीड़ा नक्कारखाने में तूती की आवाज बन गई है। किसान के बुरे दिन पहले भी आते थे, जब अतिवृष्टि या अनावृष्टि के कारण उसकी खेती मारी जाती या फिर आक्रमणकारियों के घोड़े-हाथियों के पैरों तले उनकी फसलें रौंद दी जातीं। लेकिन ये स्थितियां स्थायी नहीं होती थीं। प्रकृति और शासन की अनुकूलता प्राप्त होने पर फिर उसकी खेती आबाद हो जाती थी। लेकिन अब तो उद्योगीकरण, शहरीकरण की ऐसी आंधी चल पड़ी है कि किसान सदा-सदा के लिए अपनी खेती से दूर हो रहा है। मनमाने ढंग से कृषि योग्य भूमि पर कारखानों का निर्माण कर, हाइवे-सुपर हाइवे बना कर किसानों को उनकी जमीन, खेती से हमेशा के लिए विस्थापित किया जा रहा है। कोढ़ में खाज की तरह भवन-निर्माताओं की एक ऐसी प्रजाति पैदा हो गई है, जो छोटे-छोटे शहरों में भी खेत, बगीचे, पोखर, तालाब खरीद कर कंक्रीट के जंगल खड़ा करने की मुहिम में लगी है। इन सबके सामने सबसे लाचार, निरीह हो गया है यह किसान। यह सब देखते हुए हृदय जैसे युवक के प्रति मन में आदर का भाव आ जाता है, तो कोई विस्मय नहीं! काश, हमारे देश के विकास-पिपासु योजना-निर्माताओं और विकास-पुरुषों को हृदय जैसी सद्बुद्धि आ जाती, तो इस बेलगाम शहरीकरण-उद्योगीकरण की आंधी पर काबू पाया जा सकता।
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