अंजलि सिन्हा जनसत्ता 17 मई, 2014 : दुनिया भर में पेरिस एक सभ्य, सुसंस्कृत और नफासत वाला शहर माना जाता है। आजकल वहां एक अनोखा अभियान चल रहा है। दरअसल, प्रेमी युगलों की प्रेम की मान्यता से यह शहर दबा जा रहा है। मान्यता के अनुसार शहर में आने वाले जोड़े अपने प्रेम और रिश्तों की सलामती के लिए विभिन्न जगहों पर पेड़-पौधों, फूल-पत्तियों से लेकर विभिन्न इमारतों और पुल आदि पर ताला लगा कर चाभी पानी में फेंक देते हैं। इस तरह, शहर में तालों की भरमार हो गई है और एक पर्यावरणीय उलझन खड़ी हुई है। यह रिवाज बहुत पुराना भी नहीं है। करीब एक दशक पहले आए एक उपन्यास में इस प्रकार का उल्लेख आया था और बाद में धीरे-धीरे वह प्रचारित हो गया। अब वहां आने वाले पर्यटकों और प्रेमी जोड़ों से अपील की जा रही है कि ‘कृपया अपने प्यार को अनलॉक करें।’ वहां के प्रशासन और नागरिक इकाइयों की तरफ से भी कारगर कदम उठाने की मांग की जा रही है। अब उम्मीद की जा सकती है कि वहां की अनोखी ‘तालाबंदी’ पर रोक लग जाएगी। हर दौर और हर समाज में तरह-तरह के अभियान, आंदोलन या अन्य तरह के प्रयास किए जाते हैं। कभी प्रगति, कभी अन्याय का प्रतिरोध या अपने हकों की रक्षा के लिए। इन अभियानों, आंदोलनों या प्रयासों के स्वरूप और प्रकृति से हम सामाजिक हालत का जायजा ले सकते हैं। पेरिस वालों को इस बात पर आपत्ति नहीं है कि जोडेÞ अपने प्रेम का इजहार कर रहे हैं। उन्हें सिर्फ इस बात पर एतराज है कि वे उसकी निशानी के तौर पर किसी पुल विशेष पर ताला लगा देते हैं। विकसित पेरिस के बरक्स अगर हम अपने यहां के हालात को देखें तो हमारे यहां प्रेम का इजहार करना या प्रेम करना अब भी मुश्किलों से भरा रास्ता है। इसमें जाति और धर्म आड़े आएगा। परिवार को मंजूर नहीं होगा तो जान भी जा सकती है। दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और आसपास का इलाका तो झूठी इज्जत के नाम पर हत्याओं के लिए कुख्यात है। प्रेम करने के हक या जीवन-साथी को चुनने में व्यक्तिगत चुनाव की प्राथमिकता बनाने को लेकर कोई अभियान चले तो उससे पहले के ही कई अभियानों की जरूरत अभी लोगों की ऊर्जा को सोख लेगी। मसलन, यह मांग उससे पहले की बनती है कि लिंगभेद के कारण गर्भपात न हो, दहेज के लिए उत्पीड़न और हत्या न हो, घरेलू हिंसा न हो, सभी बच्चों को पढ़ने-लिखने और समान अवसर की गारंटी मिले आदि। यानी कुछ बुनियादी बातें हैं,जो हर आगे बढ़ने वाले समाज को पहले हल करनी होंगी। पेरिस के ऐतिहासिक पुल की तरह कोलकाता के सबसे मशहूर प्रतीक ऐतिहासिक हावड़ा ब्रिज को भी खतरा है। उसकी आयु कम हो रही है, लेकिन यह खतरा किसी प्रेमी जोड़े
की तालाबंदी या टोटके के कारण नहीं, बल्कि लोगों की थूकने की आदत के कारण है। 1937 में हुगली नदी पर बने हावड़ा ब्रिज पर हर रोज पांच लाख पैदल यात्री और लगभग उतने ही वाहन चलते हैं। वह बेहद कमजोर हालत में है, टूटने के करीब। उसे इस हालत में पहुंचाने में उसका इस्तेमाल करने वाले लोग ही जिम्मेदार हैं, जिन्होंने उसे एक विशाल थूकदानी में तब्दील कर दिया है। इक्कीसवीं सदी में जल्दी महाशक्ति बनने को उत्सुक और आमादा इस मुल्क को अभी बहुत सारी मध्ययुगीन आदतों से निजात पानी है, इसकी यह छोटी-सी मिसाल है। यों आधुनिक और पुरातन का विचित्र संयोग बनते इस मुल्क में हम पग-पग पर ऐसी चीजों से रूबरू होते हैं, जो बताती हैं कि हमें अभी कितनी दूरी तय करनी है।ऐतिहासिक जगहों, इमारतों और पुलों पर से ताले हटा कर उनका बचाव किया जा सकता है। लेकिन हमारे यहां आलम यह है कि लोग अपना नाम ऐतिहासिक इमारतों की दीवारों पर खोद देते हैं। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के पास स्थित भीमबेटका की गुफाएं आदि-मानव के वहां रहने की निशानी हैं और दुनिया की धरोहर हैं। वहां जाना अपने आप में रोमांचित करने वाला अनुभव हो सकता है। वहां की गुफाओं में आदि-मानव द्वारा बनाए कई चित्र आज भी सुरक्षित हैं। मगर यह देखना कोई अजूबा नहीं लगेगा कि कई चित्रों के पास वहां पहुंचे यात्रियों ने भी अपने नाम अंकित कर दिए। अपनी ऐतिहासिक धरोहर की गरिमा को न समझने वाले इस ‘प्रबुद्ध’ समाज को क्या कहा जाएगा- आधुनिक या पिछड़ा! समाजों का स्वरूप वहां के अभियानों, आंदोलनों को किस तरह प्रभावित कर सकता है, इसे हम अपने समाज में पशु-प्रेम की अभिव्यक्ति के संदर्भ में भी देख सकते हैं, जिसके कारण नागरिक जीवन बाधित होता है। बाहर के देशों में अपने पालतू कुत्ते को कोई ऐसे नहीं टहलाता होगा, जैसा लोग अपने यहां। फुटपाथ और सड़क को यहां साधिकार गंदा कराया जाता है। इसके खिलाफ कोई अभियान चले तो भी उन पालतुओं के मालिकों पर शायद ही कोई असर पड़े।
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