भंवर लाल मीणा जनसत्ता 12 मई, 2014 : मैं गांव से बस द्वारा नजदीक के बाजार में खरीदारी करने जा रहा था। मैंने देखा, बस बहुत धीरे-धीरे चल रही थी। सामने से बहुत सारी भेड़ें आ रही थीं और उसके चलते बस लगभग आधा घंटा रुकी रही, जब भेडें निकल गर्इं, तब बस आगे बढ़ी। इसके बाद मैंने देखा कि दो हजार के आसपास भेड़ों को गड़रिये एक तरफ रोके हुए थे। उस दिन से यह सिलसिला चार-पांच दिन तक चलता रहा। गड़रिये अपने क्षेत्र में चारा-पानी खत्म होने पर भेड़ों को लेकर दूसरे क्षेत्रों में निकल जाते हैं। इन्हें स्थानीय भाषा में गायरी कहते हैं। ये अपनी पूरी गृहस्थी का सामान साथ में लेकर चलते हैं। जहां रात होती है, वहीं डेरा डाल कर रुक जाते हैं और सुबह होने पर फिर से अपने गंतव्य की ओर चल देते हैं। जब यह भेड़ों का रेवड़ निकलता है तो इसकी संरचना देखने लायक होती है, जो अलग-अलग समूह में बंटी होती है। पहले समूह में भेड़ें होती हैं, उसके बाद वाले समूह में चलने लायक मेमने होते हैं, फिर ऊंट। ऊंट की कांठी में तुरंत जन्म लिए हुए छोटे मेमने होते हैं जो चल नहीं पाते हैं। इन्हीं के साथ बीमार भेड़ों का समूह भी होता है। इस समूह की भेड़ों को रास्ते में खरीदार मिलने पर बेच दिया जाता है। उसके बाद वाले समूह में गधे होते हैं, जिसमें खाने-पीने का सामान और तुरंत जरूरत की चीजें होते हैं। यह मोर्चा साथ में चलने वाली महिलाएं संभालती हैं। जब-जब यह रेवड़ निकलता है, तब इन गड़रियों को काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। मसलन, चलते-चलते जिस जगह पर रात हो गई, वहीं डेरा डाल कर रुकना होता है। रुकने वाले स्थान पर पहले सुरक्षा घेरा बनाना होता है, क्योंकि रात में भेड़ों की चोरी करने वाले चोर आ सकते हैं। जरा-सी आंख लगी नहीं कि भेड़ें चोरी हो सकती हैं। जहां से भेड़ों के रेवड़ निकलते हैं, वहीं से ये चोर पीछे लग जाते हैं। एक ही चोर रेवड़ के पीछे ज्यादा दूरी तक नहीं आता है। चोरों के भी अपने क्षेत्र होते हैं। जब एक चोर का क्षेत्र समाप्त हो जाता है, तब दूसरे क्षेत्र के चोर रेवड़ के पीछे हो जाते हैं। जिस-जिस इलाके से यह रेवड़ गुजरता है, उस इलाके के चोर अपना काम
संभालते हैं। गड़रिये भी इन इलाकों के बारे में खूब जानते हैं।एक बार मैं उदयपुर से धरियावाद जा रहा था। बस में दो गड़रिये मिले जो पाली से मंदसोर जा रहे थे, अपनी भेड़ों का रेवड़ संभालने के लिए। मैंने बातचीत की तब पता चला कि वे विभिन्न इलाकों के बारे में खूब जानकारी रखते हैं। एक गड़रिये ने तो मुझे यह बताया कि आप किस इलाके के हैं। मैं आपके इलाके के पेड़ों के बारे में बता सकता हूं और कौन-सा पेड़ किस इलाके में पाया जाता है, यह भी बता सकता हूं। इन बातों के बाद जब मैंने उनके भाषा ज्ञान के बारे में पूछा तो पता चला कि उसे बहुत सारी भाषाओं की जानकारी थी। मसलन, मराठी, हिंदी, गुजराती, मालवी और राजस्थानी भाषा की बोलियां। इसके अलावा भी उसे कई प्रदेशों की बोलियां पता थीं। मुझे उस समय यह लगा कि हमारी भाषाओं और बोलियों को सहेजने का काम यही लोग कर रहे हैं। ये लोग महीनों अपना जीवन घुमक्कड़ी में बिता देते हैं। जहां-जहां भी जाते हैं, अपनी संस्कृति को बांटते या फैलाते चलते हैं। हमारी भाषाओं को भी ये एक से दूसरे प्रदेश में फैलाते हैं। ये नए शब्द भी गढ़ते हैं और उनका उपयोग करते हैं। आजकल हमारी भाषाओं पर काम करने वाले विद्वानों को इन गड़रिया लोगों से जरूर मिलना चाहिए और उनके भाषा ज्ञान के साथ-साथ उनके जीवन के बारे में भी बात करनी चाहिए। ये लोग एक पूरी संस्कृति को साथ लिए चलते हैं और इनका अपना घुमक्कड़ शास्त्र होता है। आवश्यकता है इसे दर्ज किए जाने की।
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