राघवेंद्र दीक्षित
जनसत्ता 15 फरवरी, 2014 : भारत नदी संस्कृति का देश है। हम अपनी संस्कृति को नदियों से जोड़ कर देखते रहे हैं। सिंधु संस्कृति, बनास संस्कृति, सोन संस्कृति और आगे चल कर गंगा-जमुना संस्कृति। असम के नगांव नगर के बीचोबीच से निकली कोलोंग नदी के किनारे एक सांस्कृतिक आयोजन हुआ तो हमें फिर लगा कि सचमुच संस्कृति का विकास नदी से जुड़ा है। मौका था असम के महान साहित्यकार लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा की डेढ़ सौवीं जयंती का। लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा का असम के साहित्य और संस्कृति में बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने जनता का खूब मान पाया और रसराज कहलाए। कहते हैं उनका जन्म महाबाहु ब्रह्मपुत्र पर हिलोरें खाती एक नौका पर हुआ था, जब उनके पिताजी बरपेटा के नदी मार्ग से यात्रा कर रहे थे। गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के घराने में लक्ष्मीनाथ का विवाह हुआ। इस नदी-पुत्र ने असमिया साहित्य को महान रचनाएं दीं। इन्हीं में से एक गीत की पंक्ति है: ‘ओ मोर अपूनार देस...’ (ओ मेरे अपने देस...)। यह ऐसा अमर गीत हो गया कि इसे असम के जातीय संगीत का आधार गीत कहा जाने लगा। इस गीत की धुन तैयार की थी कमला प्रसाद अग्रवाल ने।
पंडित जवाहरलाल नेहरू के नाम पर कोलोंग का एक किनारा है- ‘नेहरू बाली’, जहां देश की तैंतीस भाषाओं में इस गीत का काव्यानुवाद गाया गया। किसी काव्य-अनुवाद पर इतना विराट उत्सव पहले नहीं देखा था। आयोजक मधुर ध्वनि में उद्घोष करते रहे। विभिन्न भाषाभाषी प्रतिभागी अपने परंपरागत परिधानों में ‘ओ मोर अपूनार देस...’ गाते रहे। महिला-पुरुष सब एक साथ। महिलाएं पहले जिस पंक्ति को गातीं उसी को पुरुष दोहराते- पूरे समन्वय और तन्मयता के साथ। एक दो नहीं, पूरी तैंतीस भाषाओं में एक ही मंच से यह जातीय गीत गाया गया। दर्शक वर्ग- साधारण जनता, जो अपने महान कवि की रचना को तमाम भाषाओं में सुन कर अभिभूत थी। मंच से यह संदेश दिया जा रहा था कि भाषाएं अलग-अलग लोगों को भी जोड़ती हैं। इन भाषाओं में पंजाबी, सिंधी, मारवाड़ी, भोजपुरी, हिंदी, उर्दू के साथ बांग्ला, नेपाली, ताई, कार्बी, मणिपुरी, बोडो, मिशिंग, गारो, खासी, राजबंसी, नागा, मीजो आदि शामिल थीं।
आयोजन एक साधारण जातीय (राष्ट्रीय) विद्यालय ने किया था। यह आयोजन जहां एक तरफ महान संस्कृति की पहचान करा रहा था, वहीं दूसरी ओर कई मायनों में ऐतिहासिक भी था। भारतीय संविधान में अब तक बाईस भाषाओं को स्थान मिला हुआ है, पर यहां तैंतीस भाषाओं में यह अमर गीत गाया गया। भाषा एक सामुदायिक चीज है। जब हम कहते हैं कि इस भाषा को
बचाया जाना चाहिए, तो ठीक उसी समय हम यह भी कह रहे होते हैं कि उस समुदाय को बचाया जाना चाहिए। मठों, गढ़ों, केंद्रीय संस्थानों और निदेशालयों में बैठे भाषापति यह कहने से नहीं चूकते कि भाषा अपने आप जीती और मरती है। उस समय हम यह भूल जाते हैं कि अगर ऐसा होता तो राजा शिवप्रसाद सितारे-हिंद ‘भूगोल हस्तामलक’ नहीं लिखते, न ही खड़ी बोली पठन-पाठन का माध्यम बन पाती। कम से कम हिंदी पट्टी में ऐसा आयोजन नहीं देखा जाता। आयोजन होते हैं, पर नदी किनारे नहीं, खुले मैदानों में नहीं। अंधेरे बंद कमरों में। जनता से दूर। आम जन से कटे हुए। हिंदी का साहित्यिक समाजशास्त्र इतना जटिल और कुटिल हो गया कि जनता का साहित्य जनता से दूर है। हिंदी पट्टी में कभी नहीं देखा जाता कि निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ का वाचन, मंचन खुले मैदानों में हो रहा हो। साहित्यिक आयोजनों का विकेंद्रीकरण या कहें साहित्य के तंत्र को लोक तक लाना जरूरी है। जरूरी नहीं कि मैदानों में सिर्फ राजनीति की बातें हों। साहित्यिक आयोजन भी हो सकते हैं। जनता के बीच।
एक समय था, जब लोहिया रामायण मेला आयोजित करते थे, जहां प्रेम और आनंद के साथ-साथ जनता की रुचि का भी परिष्कार होता था। अब न हमारे समय में कबीर हैं कि जनता के साथ लुकाठी लेकर चल सकें और न तुलसी हैं जो ‘धूत अवधूत’ कहने पर किसी की परवाह न करें। इन जनता के कवियों को जनता से दूर कर दिया गया है। आज के महाकवि जनता से पहले ही दूरी बनाए हुए हैं। उदारवाद ने अपना काम बहुत चालाकी से बहुत कम समय में कर दिया। लोहियाजी ने कभी नहीं सोचा होगा कि उनका समाजवाद एक दिन पर्यटन-संस्कृति के नाम पर सिरफिरे- महोत्सव आयोजित कराएगा।
एक समय था जब बंगाल और महाराष्ट्र की साहित्यिक हलचलों का प्रभाव हिंदी पट्टी पर भी पड़ता है। अभी हिंदी की चेतना ‘ब्रह्मराक्षस की बावड़ी’ की तरह हो गई हैं। आमजन के लिए साहित्य भी प्रतिरोध का एक हथियार है सिर्फ राजनीति नहीं। ग्राम्शी ने लेखक को एक्टिविस्ट की तरह भी देखा था। वह दिन कब आएगा जब निराला, तुलसी, मुक्तिबोध, पर चर्चा, काव्य-पाठ खुले मैदानों में होगी। जनता के बीच। नदी के किनारे।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta
|