जनसत्ता 10 फरवरी, 2014 : दिल्ली लोकपाल विधेयक को लेकर केजरीवाल सरकार और उपराज्यपाल के बीच तनातनी दुर्भाग्यपूर्ण है। इस विधेयक को मंत्रिमंडल की हरी झंडी मिल चुकी है। अब दिल्ली सरकार इसे विधानसभा में पारित कराना चाहती है। पर विधानसभा में विधेयक पेश हो पाए, इससे पहले संवैधानिक उलझनें खड़ी हो गई हैं। केंद्र का मानना है, जो महान्यायवादी मोहन परासरन की राय से भी जाहिर है, कि दिल्ली सरकार को विधेयक विधानसभा में पेश करने से पहले उस पर केंद्रीय गृह मंत्रालय की सहमति लेना जरूरी है। दूसरी ओर, मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना है कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो राज्य सरकार को केंद्र या उपराज्यपाल की अनुमति के बगैर विधेयक को सदन में रखने से रोकता हो। उन्होंने अपने रुख के पक्ष में विधानसभा की स्वायत्तता की बात भी कही है।
निश्चय ही उपराज्यपाल को लिखे पत्र में केजरीवाल ने कई गंभीर मुद्दे उठाए हैं जिन्हें हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। पर उपराज्यपाल से मतभेद का मतलब यह नहीं कि उनके प्रति ऐसी भाषा इस्तेमाल की जाए जो अमर्यादित हो। आम आदमी पार्टी के एक प्रवक्ता ने तो उपराज्यपाल को कांग्रेस का एजेंट कह दिया। पार्टी पहले भी कुछ अशालीन बयानों के कारण आलोचना झेल चुकी है। ऐसी टिप्पणी नई राजनीतिक संस्कृति के उसके दावे से मेल नहीं खाती। पर उपराज्यपाल के रवैए को लेकर भी खासकर दो सवाल उठते हैं। एक यह कि विधेयक की प्रति दिल्ली सरकार से मिलने के पहले ही उन्होंने महान्यायवादी की राय कैसे ले ली। दूसरे, दिल्ली सरकार को महान्यायवादी की राय से अवगत कराने से वह पहले मीडिया में कैसे आ गई।
विधेयक पर महान्यायवादी परासरन ने जो कहा है, वही कांग्रेस का भी नजरिया है और इसी आधार पर वह विधेयक को असंवैधानिक बता रही है। गृह मंत्रालय की पूर्व-अनुमति के
पीछे दलील यह है कि केंद्र को यह देखना होता है कि राज्य का विधेयक केंद्र के किसी कानून का अतिक्रमण न करता हो। ताजा मामले में कांग्रेस ने लोकपाल कानून का हवाला दिया है। पर क्या बाकी राज्यों में जो लोकायुक्त कानून हैं, वे केंद्र के लोकपाल कानून से मेल खाते हैं? क्या कांग्रेस यह कह सकती है कि गुजरात का लोकायुक्त कानून संसद के पिछले सत्र में पारित लोकपाल कानून के अनुरूप है? कर्नाटक, गुजरात, उत्तराखंड और अन्य राज्यों में जो लोकायुक्त कानून हैं उनकी भिन्नताएं उजागर हैं। फिर, तमाम लोकायुक्त कानून, संसद में लोकपाल विधेयक पारित होने के पहले से वजूद में हैं।
इसलिए असल मुद्दा केंद्र के लोकपाल कानून से मेल खाने का नहीं, दिल्ली सरकार के विधेयक को संविधान के आलोक में देखने का है। कांग्रेस और भाजपा ने केंद्र की पूर्व-अनुमति को छोड़ कर, विधेयक की संवैधानिकता को लेकर और कोई खास सवाल नहीं उठाया है। केंद्र की पूर्व-अनुमति की जिस शर्त की बात कही जा रही है, वह बरसों पहले केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक आदेश पर आधारित है। क्या इस आदेश के बरक्स विधानसभा की स्वायत्तता का वजन कम हो जाता है? दरअसल, इस विवाद को सियासी गणित से अलग कर नहीं देखा जा सकता। इसमें दो राय नहीं कि केजरीवाल सरकार ने जो दिल्ली लोकपाल विधेयक तैयार किया है वह तमाम लोकायुक्त कानूनों से अधिक सख्त है। कांग्रेस और भाजपा को इसका सीधे विरोध करने के बजाय संवैधानिक नुक्ते निकालना राजनीतिक रूप से सुविधाजनक मालूम पड़ता है।
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