अपूर्वानंद
जनसत्ता 09 फरवरी, 2014 : ‘भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है’, रामधारी सिंह दिनकर ने भारतीयता को काव्यात्मक ढंग से परिभाषित करने का प्रयास कुछ इस तरह किया था। लेकिन आजादी के बाद भारत स्थानवाची संज्ञा ही बना रहा। बल्कि समय गुजरने के साथ-साथ व्यक्तियों के गुण के रूप में पहचाने जाने से अधिक एक भौगोलिक सत्ता के रूप में ही इसने अपनी पहचान दृढ़ करने पर बल दिया। कवि अस्पष्ट रूप से भारतीयता के जिस गुण का प्रस्ताव कर रहा था, वह क्या हो सकता था? भारतमाता की जय का नारा लगाने वाले किसानों से नेहरू ने पूछा था कि आखिर यह भारतमाता है कौन, जिसकी वे जयकार करते हैं। किसान कुछ देर चक्कर में पड़े रहे: उनके खेत-खलिहान, बगीचे, गांव, पेड़-पौधों वाली यह शस्यश्यामला भूमि, नदियां और पहाड़; क्या यही भारत हैं? नेहरू ने कहा कि असल भारत हैं इसमें रहने वाले स्त्री और पुरुष, इसके लोग ही भारत हैं।
हम कवि और कविमना प्रधानमंत्री के प्रस्ताव पर कुछ देर विचार करें। कवि अस्पष्ट रूप से भारतीयता के जिस गुण का प्रस्ताव कर रहा था, वह क्या हो सकता था? क्या वह अहिंसा या परस्पर सहिष्णुता का विचार था? क्या है वह सूत्र, जो एक उत्तर भारतीय को एक दक्षिण या पूर्वोत्तर के निवासी के साथ जोड़ सकता है? कवि से इसके उत्तर की अपेक्षा करना ज्यादती है, लेकिन क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि अंग्रेजी शासन से मुक्ति के बाद हमने इस प्रश्न पर समय नहीं लगाया? भारत को हमने अंग्रेजों से प्राप्त कर लिया, उस विचार को स्वयं अर्जित नहीं किया। यह नहीं कि इसके मौके नहीं थे: उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के दौरान ही भारत पर दावेदारी करती हुई परस्पर विरोधी विचारधाराएं एक-दूसरे से टकरा रही थीं। हिंदू-मुसलमान, सिख, दलित, द्रविड़, नगा आदि ये सारी पहचानें भारत पर अपना दावा पेश कर रही थीं। उस दौर की बहसों को आज पढ़ना शिक्षाप्रद हो सकता है। इसलिए कि भारत को एक भौगोलिक सत्ता मात्र के रूप में अंग्रेजों से हासिल करने से कहीं बड़ी चिंताएं इनमें व्यक्त हो रही थीं।
भारत संबंधी यह सामूहिक संवाद आखिरी तौर पर संविधान सभा में हुआ। सामाजिक स्तर पर यह संवाद दूसरे ढंग से हुआ। प्रांतों के बंटवारे के आधार को लेकर हुई बहसों या आंदोलनों में भारत नामक राष्ट्र-राज्य में अपने स्थान की विशिष्टता की रक्षा और उसके संसाधनों पर दावे की फिक्र दिखाई पड़ती है। क्यों मणिपुर या नगालैंड के निवासी को बिहार या तमिलनाडु के निवासी के साथ आत्मीयता महसूस करनी चाहिए? इनमें साझा तत्त्व कौन-सा है?
अनेकता या विविधता में एकता का नारा हम जाने कब से लगाते रहे हैं, पर इसमें बल किस पर है, एकता या विविधता पर? इस विविधता का वास्तविक अर्थ क्या है? क्या इसे लोगों के लोकतांत्रिक अधिकार के रूप में समझने की कोशिश की गई है? राजनीतिक स्तर पर तो हम क्षेत्रीयताओं के उभार की बात करते हैं, लेकिन यह उभार व्यापक रूप में भारत की कल्पना को किस तरह प्रभावित करता है?
एक बड़े भूभाग में भारत एक असुरक्षित विचार के रूप में प्रवेश करता है: आंतरिक सुरक्षा संबंधी कानूनी कवच के पीछे छिपा हुआ। सशस्त्रबल विशेषाधिकार कानून जैसे कानूनों के सहारे जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में भारत की सत्ता को स्थापित करने की कोशिशें अनंतकाल तक विफल होने को अभिशप्त हैं। इन इलाकों की जनता को हमेशा समस्या के रूप में ही देखा जाता रहा है, जिनसे प्रमुखत: दंडात्मक विधानों से ही भारत के विचार को स्वीकार करने को उन्हें बाध्य किया जाता है और बाद में सहलाने के लिए असाधारण राजकीय सुविधाएं दी जाती हैं, जो राज्य के इरादों के प्रति स्थानीय जन में शंका और घृणा ही उत्पन्न करती हैं। इस दुश्चक्र में फंसे होने के कारण उनके मन में खुद अपनी एक विकृत छवि बन जाती है और वे अपने आप से भी नफरत करने लगते हैं। दिलचस्प यह है कि ऐसे इलाकों में भारतीय राज्य इन आबादियों में ‘अपने लोग’ खोजता है और वे प्राय: भ्रष्ट तरीकों से ही भारतीय बनते हैं; उन्हें उनके अपने समुदाय में मुखबिर या भेदिया के तौर पर पहचाना जाता है। समुदाय के भीतर जासूस पैदा
करके अपनी जगह बनाने वाली राष्ट्रीयता को क्या कभी भी इत्मीनान नसीब होगा?
भारत किनका है? संविधान निर्माण के समय आदिवासियों की ओर से जयपाल सिंह ने पूछा: ‘‘संविधान आपका है। सीमाएं आपकी हैं। संप्रभुता आपकी है। झंडा आपका है। हमारा क्या है? भारतीय संविधान में वह क्या है, जो एक ही साथ भारतीय और आदिवासी हो? साझी विरासत कौन-सी है या साझा बुनावट? आपने अधिकारों, मतवादों, उद्योग-धंधों, विज्ञान को परिभाषित किया है, कुछ हमारा भी रहने दीजिए।’’ प्रश्न सिर्फ आदिवासियों का नहीं था।
अंग्रेजों ने अपने कानून द्वारा स्थानीय आबादियों को अधिकार-वंचित कर दिया था और अपने ही घर में बेगाना ही नहीं, अपराधी भी बना दिया था। भारत इनके लिए किस रूप में एक नया प्रस्ताव था? आदिवासी बुद्धिजीवियों के प्रश्न के उत्तर में उनसे कहा गया कि वे संविधान के निर्देशक सिद्धांत का एक प्रारूप तैयार करें। जयपाल सिंह के सहयोगी राफेल होरो ने लिखा: ‘‘संविधान गृहप्रवेश का एक प्रतीक है। यह उन सबको अधिकार देता है जो पुराने कानूनों के द्वारा बेघर और लाचार कर दिए गए थे। यह हाशिये के लोगों, निष्कवच, विधिबाह्य और विरोधियों को आमंत्रण है कि वे संविधान को एक घर के रूप में महसूस कर सकें, एक ऐसी जगह जहां विविधतापूर्ण अस्तित्वों और संभावनाओं का स्वागत है। भविष्य नागरिकता की संभावना मात्र है।’’
भारतीय राष्ट्र-राज्य के उसके सदस्यों के साथ रिश्ते को लेकर इसके बाद किसी गंभीर विचार-विमर्श का सबूत हमारे पास नहीं है। आजादी मिलने के बाद जल्दी ही हम सब खुद को राज्य के हवाले कर देने वाले थे। नागरिकता को परिभाषित करने का काम भी इकतरफा ही हुआ। राष्ट्र-राज्य ने खुद की वैधता बनाए रखने के लिए गाहे-बगाहे उठने वाले स्थानीय असंतोष के प्रति समझौतापूर्ण रवैया दिखाया। लेकिन इस पर कभी व्यापक चर्चा या संवाद संभव नहीं हुआ। मसलन गोरखालैंड की मांग को लेकर एक बिहारी या महाराष्ट्रीय को किसी से बात करने की जरूरत होनी चाहिए या नहीं? बोडोलैंड के बनने या बंगाल में असुविधाजनक राजवंशी या कामतापुरी अस्तित्व पर मणिपुरी को सोचने की आवश्यकता है या नहीं? जो नगा भारत से अपनी स्वायत्तता के लिए संघर्ष करते हैं, वे मणिपुरियों से कैसे पेश आते हैं?
जैसा पहले कहा गया भारतीय राज्य स्थानीय आबादियों के साथ अपनी मर्जी से उदारता और सख्ती से पेश आने का रवैया अख्तियार करता रहा। इस तरह इन आबादियों की असमान्यता एक शाश्वत तथ्य बन गई। बिहार और उत्तर प्रदेश या हिंदीभाषी राज्यों में कल्पना भी नहीं की जा सकती कि राज्य सैकड़ों जवानों को लापता कैसे कर देता है। अगर उच्चतम न्यायालय ने न कहा होता तो क्या एक बिहारी या मलयाली कभी मणिपुरी युवाओं या कश्मीरी लोगों के गायब हो जाने को लेकर सवाल उठाता? यह चंद नागरिक अधिकार समूहों के जिम्मे छोड़ दिया गया है और वे भारतीय राज्य के लिए संदिग्ध हैं, यह नंदिनी सुंदर के साथ छत्तीसगढ़ की पुलिस के हाल के रवैए से जाहिर होता है।
ऊपर उठाए गए सवाल जितने राजनीतिक हैं उतने ही सांस्कृतिक भी। विडंबना यह है कि इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अलावा और किसी संगठन ने कभी सामाजिक विचार-विमर्श के योग्य नहीं समझा। राष्ट्र की समझ का फे्रम इस तरह प्राय: संघ द्वारा तय कर दिया गया। जयपाल सिंह और राफेल होरो ने संविधान को एक नए घर के रूप में गढ़ने की जो शुरुआत की थी, वह वहीं छोड़ दी गई।
संविधान की अमूर्तता और उसकी सार्वभौमिकता इस नए घर के निर्माण में बहुत मददगार नहीं। वह कैसे इस वैविध्यपूर्ण और भयंकर गैर-बराबरी वाले देश में सबको बराबर हिस्सेदारी की तसल्ली दे सकता है? इस चुनौती का सामना राजनीतिक दलों को ही नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के लिए संघर्षरत समूहों को भी करना होगा। अभी विश्व नए सिरे से साथ रहने की नई भाषा की तलाश में भटक रहा है। भारत क्या साझेदारी की ऐसी जुबान खोजने की इच्छा और माद्दा रखता है?
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta
|