Tuesday, 08 October 2013 10:10 |
सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी जनसत्ता 8 अक्तूबर, 2013 : आपने भी गौर किया होगा कि आजकल सभी जगह सभी क्षेत्रों में खुद को नंबर एक साबित करने का खुला खेल फर्रूखाबादी चल रहा है। ऐसा लगता है कि इसकी कोई खुली प्रतिस्पर्धा चल रही है।
हर क्षेत्र में लोग दूसरों को पीछे छोड़ कर खुद को अन्य से आगे बता कर नंबर दिखाने में जी-जान से लगे हैं। बड़े-बड़े विज्ञापन देकर लाखों रुपए खर्च करके लोग इस बात के लिए ढोल पीटने में लगे हैं। सच तो यह है कि सब अपने फायदे के लिए झूठ बोल रहे हैं। आप जिधर देखें, यही आलम नजर आता है। हर डॉक्टर-वकील खुद को नंबर एक बता रहा है तो बिल्डर, अस्पताल, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, कोचिंग सेंटर या फिर हर होटल, पर्यटन एजेंसियां, मोबाइल कंपनी, हवाई सेवाएं, टेलीविजन, अखबार से लेकर दूध कंपनियां या समोसा-कचौरी बेचने वाले भी खुद को नंबर एक बताने की जद्दोजहद में लगे हैं। यानी सभी अपने मुंह मियां मिट्ठू बन रहे हैं। कोई नंबर दो पर है ही नहीं। सभी नंबर एक पर हैं। यह एक ऐसा स्थान है, जिसका समाजवादी सरलीकरण हो गया है। सवाल है कि क्या इतने सारे, बल्कि सभी लोग नंबर एक स्थान पर हो सकते हैं। क्या खुद को नंबर एक बताने और साबित करने में शिद्दत से लगे लोग यह नहीं जानते कि वे सभी एक ऐसी प्रक्रिया में लगे हैं जो अव्यावहारिक और नामुमकिन है? सभी पढ़े-लिखे और ज्ञानवान लोग हैं और जानते हैं कि वे वही कर रहे हैं जो दूसरे भी कर रहे हैं। फिर क्या अपने आपको नंबर एक बता कर वे खुद को और दूसरों को खुशफहमी में नहीं रख रहे? ब्लेड, पाउडर, टूथ पाउडर और जूते तक ‘नंबर वन’ हो गए हैं। एक समय था, जब माना जाता था कि बात तो तब है जब दूसरे आपको श्रेष्ठ मानें। संकोच, शालीनता और शर्म-लिहाज के चलते कोई खुद को श्रेष्ठ या नंबर एक नहीं बताता था। अब ऐसा माना जाने लगा है कि कोई दूसरा आपको कभी श्रेष्ठ नहीं मानेगा। वह तो खुद को श्रेष्ठ बताएगा। इसलिए आपको किसी दूसरे पर निर्भर रहने के बजाय खुद को ही श्रेष्ठ बताने का साहस (दुस्साहस) करना चाहिए। जब से यह समझ विकसित हुई है और लोगों ने शर्म-हया से निजात पाई है, लोग खुद ही खुद को नंबर एक बताने के खेल में लग गए है। सभी छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीजें नंबर एक घोषित की जाने लगी हैं। ऐसा लगता है कि
सभी आत्ममुग्ध अवस्था में जी रहे हैं। स्वकेंद्रित हो गए हैं और अपने पास या आसपास जो भी है, वही उन्हें श्रेष्ठ दिख रहा है। नेता, अभिनेता, कवि, कलाकार और संस्थान खुद ही बेहिचक होकर अपना विज्ञापन कर रहे हैं और खुद को पहले क्रम पर बता रहे हैं। हालांकि वे जानते हैं कि लोग समझदार हैं और उनकी बात पर यकीन नहीं करेंगे। फिर भी वे कोशिश में लगे हुए हैं कि देर-सबेर कुछ तो उनके झांसे में आएंगे ही! हमारे देश में चलन है कि हम खुद ही बहुत-सी बातें तय करते हैं। दूसरों से नहीं पूछते। जब नेता कहते हैं कि जनता यह चाहती है तो वे जनता से नहीं पूछते कि वह क्या चाहती है, बल्कि खुद ही तय कर लेते हैं कि जनता क्या चाहती है। करते वे सब जनता के नाम पर हैं, पर फैसला उनका होता है। इसी तरह, नंबर एक का खेल इसी विश्वास के साथ खेला जा रहा है कि देर-सबेर उनकी यह विज्ञापन नीति सफल होगी। लोग मानने लगेंगे कि वे जो कह रहे हैं, वही सच है। उनका यह विश्वास ही उन्हें सक्रिय बनाए हुए है। भले ही लोग उनकी बात पर यकीन न करें। पर उन्हें तो अपने प्रयास पर विश्वास करते ही रहना है। इसे आप तरक्की का विस्फोट भी कह सकते हैं कि हमारे देश में सभी नंबर एक हो गए हैं या फिर उसकी प्रक्रिया में हैं। कितनी सुखद स्थिति है कि देश के सभी अखबार, अस्पताल, स्कूल-कॉलेज, सेवा संस्थान या कर्ताधर्ता, सभी कुछ नंबर एक हो जाएं। काश कि देश भी नंबर एक हो जाए, ताकि हम गर्व से इस बात की घोषणा कर सकें। दुनिया भी माने कि हम नंबर एक हैं। लेकिन यह तब संभव है जब खुद को नंबर एक बताने की कोशिश में लगे लोग वाकई देश को नंबर एक बनाने की कोशिश में लगें। फिलहाल तो सभी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं! अगर वाकई कोई नंबर एक होगा तो उसे खुद यह बताने की जरूरत नहीं होगी। दूसरे लोग अपने आप उसे नंबर एक मानेंगे और बताएंगे!
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