वाणभट्ट जनसत्ता 7 अक्तूबर, 2013 : आजकल मीडिया में समाचार को सनसनीखेज तरीके से पेश करने का चलन नाकाबिले-बर्दाश्त हो चला है। टीवी के सामने बैठ कर मैं सलमा सुल्तान के जमाने को याद करते हुए ‘दूरदर्शन न्यूज’ और आजकल के सनसनीखेज समाचारों का तुलनात्मक विश्लेषण कर ही रहा था कि एक चैनल पर सनसनी टाइप के पत्रकार ने खबर चलाई कि ‘प्याज की जमाखोरी से किसान ने लाखों कमाए’।
रिपोर्टर ने जिस तरह बताया, उससे लगा कि कानून का पालन करने वालों के महान देश में किसान ने कोई भयंकर अपराध कर दिया हो। जिस देश में आदर्श बच्चों और उसूल दूसरों को प्रवचन देने के लिए हैं, वहां किसान पर ऐसा आरोप सुन कर मैं स्तब्ध रह गया। एक नामी ब्रेड कंपनी ने अपनी ब्रेड को लोकप्रिय बनाने के लिए मैदे में स्किम्ड मिल्क पाउडर मिलवा दिया। ब्रेड इतनी स्वादिष्ट हो गई कि बिना मक्खन लगाए आप खा सकते थे। शीघ्र ही बाकी छोटी कंपनियां बंद हो गर्इं। एक बहुराष्ट्रीय ठंडे पेय की कंपनी ने अपना बाजार बनाने के लिए दूसरी देसी कंपनी की खाली बोतलें ही खरीद डालीं और उन्हें तुड़वा डाला। बारह रुपए किलो का गेहूं जब आटा बन कर पच्चीस रुपए में बिकता है तो कोई हाय-तौबा नहीं मचती। जमीन, बीज-खाद, पानी, श्रम- सब किसान का और मुनाफा व्यापारी का। उत्पादन से पहले बीज, खाद, कीटनाशक सब बिलियन डॉलर के उद्योग बन चुके हैं और उत्पादन के बाद खाद्य प्रसंस्करण उद्योग खड़ा हो गया है। पर लकवे-पाले-बीमारी का जोखिम किसान के सिर पर। कोई किसान को ही व्यवसाय क्यों नहीं सिखाता? उत्पादन की लागत से लेकर जमीन का किराया और पूरे परिवार की दिन-रात की मेहनत का मोल- सब कुछ जोड़ कर किसान अपनी उपज की कीमत तय कर सकता है। जैसा कार, साबुन, कंप्यूटर, मोबाइल, सीमेंट, चॉकलेट आदि की कंपनियां करती हैं। जिस आदमी को गप्प मारने के लिए एक-दो पैसे प्रति सेकेंड की टॉक वैल्यू सस्ती लगती है, उसी को एक रोटी का दस रुपए देना खलता है। किसान के भरोसे देश को खाद्य सुरक्षा का भरोसा दिलाया जा रहा है। पर किसान-सुरक्षा की कोई बात नहीं कर रहा। दूसरी ओर, रोज किसानों के लिए ऐसी नई-नई लाभप्रद तकनीकें
आ रही हैं, जिनसे कृषि का मुनाफा बढ़ाया जा रहा है। समर्थन मूल्य से किसानों को जो लाभ हो रहा है, वह अभूतपूर्व है। सच भी है। किसानों का मुनाफा बढ़ा जरूर है, पर उनके शहरी समकक्ष की तुलना में बहुत कम। दरअसल, कृषि क्षेत्र में ‘सक्सेस स्टोरीज’ का जिस तरह से प्रचलन बढ़ा है, उसे देख कर लगता है विज्ञान के अन्य क्षेत्र ढक्कन हो गए हैं! सबसे ज्यादा मुनाफा कृषि में ही हो रहा है। यह बात अलग है कि हम किसी भी किसान को आज उद्योगपति के रूप में नहीं जानते। ऐसे में यह खबर कि प्याज की जमाखोरी से किसान ने लाखों कमाए, यह मेरे विचार से एक वास्तविक ‘सक्सेस स्टोरी’ है। देश के सबसे बड़े उद्योग कृषि, जो सौ करोड़ को खाना दे सकता है और रोजगार भी, को हमने अपाहिज-सा बना रखा है। सरकार के सहयोग से रेंगने वाला उद्यम। जबकि उसी से संबद्ध बीज-खाद-कीटनाशक, रसायन, प्रसंस्करण उद्योग बन गए। फिलहाल कृषक के उत्पादन का मूल्य सरकार तय करती है। जबकि अन्य किसी उद्योग में ऐसा नियंत्रण नहीं है। फिक्स्ड, वैरिएबल और विज्ञापन को जोड़ कर मुनाफा तय किया जाता है और कंपनियां ही अपने उत्पाद का मूल्य निर्धारण करती हैं। यहां तक कि सचिन तेंदुलकर और कैटरीना कैफ का पैसा भी ग्राहकों से वसूला जाता है। जिस दिन भारतीय कृषक के हाथ में भंडारण और प्रसंस्करण की जादुई छड़ी आ जाएगी, उस दिन उसकी ही नहीं, पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की दशा और देश की दिशा दोनों बदल जाएगी। खाद्य सुरक्षा को कृषक सुरक्षा से जोड़ कर देखा जाना चाहिए। खेती की सफलता गाथाएं जब अंबानियों, टाटाओं, बिरलाओं के साथ बिजनेस टुडे, फोर्ब्स इंडिया, इकॉनोमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड में स्थान पाएंगी, तभी कृषि को एक उद्योग का दरजा मिल पाएगा। संपन्न किसान ही समृद्ध भारत की नींव है।
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