संदीप राउजी जनसत्ता 7 अक्तूबर, 2013 : हाल ही में जब देश के गरीबों की खुराक पर बहस चल रही थी, उसी दौरान मुझे यह जानने की जरूरत महसूस हुई कि मजदूरों की रसोई का क्या हाल है; मध्य और उच्च-मध्यवर्गीय घरों की संजीव कपूरनुमा रसोई से आखिर ये कितनी अलग हैं; मसालों से लेकर सब्जी, दूध, फल और अंडे-मांस की खपत और इनकी मौजूदगी का हाल क्या है।
यह देख कर ताज्जुब नहीं हुआ कि हींग-लहसुन जैसे औषधीय गुण वाले जरूरी मसाले तो नदारद मिले ही, दूध और फल-सब्जियों में कटौती के प्रमाण भी थे। पोषणयुक्त आहार तो बच्चों और बीमार को ही नसीब होता है, वह भी अपर्याप्त। पिछले सात सालों से नोएडा में रह रहे एक मजदूर ने बताया कि वह दो दिन पर आधा लीटर दूध मंगाता है। जब से सब्जियों की कीमतों में आग लगी है, प्याज या खीरा के बारे में सोचना भी बंद कर दिया। कपड़े का निर्यात करने वाली जानी-मानी कंपनी में काम कर रहे एक अन्य मजदूर ने बताया कि वह घर में सिर्फ रात का भोजन बनाता है। दोपहर का खाना फैक्ट्री के नजदीक ठेले या ढाबे पर करता है। भरपेट भोजन का मतलब लगभग पचास रुपए। फैक्ट्री में दो वक्त की चाय न मिले तो दस-पंद्रह रुपए और जुड़ जाएंगे। घर में एक शाम सब्जी-तेल-मसाले पर चालीस-पचास रुपए खर्च हो जाते हैं। वह पिछले पंद्रह सालों से नोएडा में काम कर रहा है। इस बीच उसकी तनख्वाह जितनी बढ़ी, उससे ज्यादा महंगाई ने खा लिया। फल, दूध, अंडे और मांस ऐसे आहार हैं, जहां कटौती की गाज गिरती है। लेकिन अब सामान्य शाकाहारी थाली भी आधी हो रही है। वे अकेले हों या परिवार के साथ रहने वाले, दोनों की रसोई अकालग्रस्त है। महंगाई का हर झोंका इनके भोजन के कुछ निवाले निगल जाता है। मेहनत करने वाले लोग भूखे तो नहीं सो सकते, सो खानपान में ढील देना एक तरह का जोखिम ही है। कमाई का एक बड़ा हिस्सा खानपान में खर्च हो जाता है। फिर भी उनकी खुराक जीने और काम करने की न्यूनतम शर्त को ही पूरी कर पाती है। आटा, दाल, चावल, सब्जी, चीनी, चायपत्ती और इसी तरह की बुनियादी जरूरत के सामान के अलावा इनकी रसोई में टमाटर की चटनी, मक्खन, दही, बेमौसम की सब्जी और फल के लिए कोई जगह नहीं है। तुरंता आहार, दक्षिण भारतीय व्यंजन आदि विविध पकवान बस सपना हैं। पेट भरने के अलावा जो पोषण चाहिए, उनकी कीमत मजदूरों के बूते के बाहर हो चुकी है। एक
मजदूर ने बताया कि कुछ समय पहले जब नौकरी छूट गई थी तो उसने एक हफ्ते तक कढ़ी, रोटी और चावल पर गुजारा किया था। हालात की यह सिर्फ बानगी है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पांच-छह हजार रुपए महीना कमाने वाले की हालत यह है तो कमाई के बरक्स प्रति व्यक्ति बत्तीस रुपए रोजाना खर्च करने वाले परिवारों की जीवन-स्थितियों के बारे में महज कल्पना की जा सकती है। मुझे समूचे नोएडा और गाजियाबाद में कोई ऐसा ढाबा या खानपान का ठेला नहीं मिला, जहां बीस रुपए में भरपेट भोजन मिलता हो। सबसे सस्ते एक होटल में भी पेट भर खाना तीस रुपए से कम नहीं था। कहीं भी पांच रुपए से कम की चाय नहीं मिलती। पिछले सात सालों में मकान का किराया दो से तीन गुना, आटा-दाल और सब्जी-दूध के भाव ढाई से तीन गुने तक पहुंच चुके हैं। ऐसे में रसोई का हाल क्या होगा! जब गरीबी रेखा के गणित को समझने में बड़े-बड़े धुरंधर नाकाम हों तो आम अवाम से इसे समझने की उम्मीद करना नादानी होगी। हर सरकार अपनी उपलब्धियां दिखाने के लिए सबसे पहले इसी को निशाना बनाती है और हर बार गरीब की रसोई से कुछ अनाज कम हो जाता है। इसी के साथ गरीबी रेखा थोड़ा और नीचे सरक जाती है। यह सब इस तरह किया जाता है, ताकि सरकार की भलमनसाहत पर कोई शक न पैदा हो। यह मान भी लिया जाए कि इतने विशाल देश में सही आंकड़े इकट्ठा करना मुमकिन नहीं है तो इस बात पर भरोसा करना मुश्किल है कि सरकार को अपनी नाक के नीचे मौजूद आबादी की जीवन-स्थितियों के बारे में पता नहीं है। असल में यह एक खतरे के निशान की अनदेखी करने जैसा है! बांग्लादेश जैसे किसी गरीब मुल्क में मजदूरों के साथ हुए हादसों के बारे में जब हम सुनते हैं तो आश्चर्य होता है। लेकिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में लगातार होने वाली ऐसी घटनाओं पर हम आमतौर पर अपनी आंखें मूंद लेते हैं। ऐसा समाज, जिसकी मेहनतकश आबादी भूख और गरीबी से तंगहाल हो, उसका भविष्य कैसा होगा, इसका सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है!
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