Monday, 01 April 2013 11:38 |
जनसत्ता 1 अप्रैल, 2013: राजधानी दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन के एक बेहतर साधन के रूप में जब मेट्रो ट्रेन की सेवा शुरू हुई तो यहां के नागरिकों के भीतर यह स्वाभाविक इच्छा जगी कि उनके इलाकों तक भी इसकी पहुंच हो।
लेकिन सुविधाओं और चमक-दमक की कीमत दिल्ली की हरियाली को किस कदर चुकानी पड़ी है, इसके तथ्य शायद ही लोगों को पता चल पाते हों। दिल्ली में विकास के नाम पर दूसरी कई वजहों से भी लगातार पेड़ों को निशाना बनाया गया, लेकिन अकेले मेट्रो के विस्तार के दो चरणों में चौंतीस हजार वृक्ष काट दिए गए। अब सूचनाधिकार के जरिए आई जानकारी के मुताबिक मेट्रो के तीसरे चरण के विस्तार में सभी लाइनों को मिला कर साढ़े ग्यारह हजार से ज्यादा पेड़ काटे जाएंगे। इसके लिए वन विभाग ने अनुमति जारी कर दी है, जिसकी प्राथमिक जिम्मेदारी यह है कि शहर की जीवन-रेखा के रूप में हरियाली को बचाया जाए। यह नियम भी है कि वृक्षों की कटाई के पहले, विकल्प में दूसरी जगह नए पेड़ लगाने की पूरी तैयारी होनी चाहिए। मेट्रो ने काटे गए एक के बदले दस पेड़ लगाने का भरोसा दिलाया था। अकेले तीसरे चरण के विस्तार के लिए वृक्षों की कटाई के बदले एक लाख पंद्रह हजार पेड़ लगाने के लिए लगभग सवा सौ एकड़ जमीन की जरूरत पड़ेगी। अगर मेट्रो के लिए इसमें आने वाला खर्च कोई समस्या नहीं भी है तो इतने बड़े पैमाने पर जमीन कहां से हासिल की जाएगी। न दिल्ली सरकार न मेट्रो प्रशासन के पास इसका कोई जवाब है। राजधानी में पेड़ों के संरक्षण के लिए दिल्ली वृक्ष संरक्षण कानून-1994 लागू है। बिना कानूनी प्रक्रिया का पालन किए पेड़ काटना अपराध है। मगर हकीकत यह है कि दिल्ली में
धड़ल्ले से पेड़ काटे जाते रहे हैं। क्या यह वन विभाग के अधिकारियों की रजामंदी या मिलीभगत के बिना होता होगा? मेट्रो के विस्तार के लिए काटे गए हजारों पेड़ों के अलावा राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी के क्रम में चालीस हजार से ज्यादा वृक्ष गिराए गए थे। बदले में कितने पेड़ कहां लगाए जाते हैं या कितना जुर्माना वसूला जाता है, इसका कोई हिसाब-किताब नहीं रहता। दिल्ली अपवाद नहीं है। देश भर में हरित क्षेत्र में तेजी से कमी आ रही है और आज केवल साढ़े ग्यारह फीसद वन रह गए हैं। जबकि भारत सरकार ने अगले दो दशक में इसे बढ़ा कर तैंतीस फीसद ले जाने का लक्ष्य रखा था। कुछ समय पहले दिल्ली में हरित क्षेत्र 11.94 फीसद था, जो अब घट कर 11.87 फीसद रह गया है। विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र के मुताबिक 1988 में जहां ढाई हजार लोगों पर एक पेड़ था, वहीं अब यह दस हजार लोगों पर एक हो गया है। जंगलों के कटने के चलते एक ओर जहां वातावरण में कार्बन डाइआॅक्साइड की मात्रा बढ़ रही है, वहीं मिट्टी का कटाव या भूक्षरण भी तेजी से हो रहा है। जहां तक दिल्ली का सवाल है, एक ओर यहां की आबोहवा को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए सभी सार्वजनिक वाहनों को डीजल के बजाय सीएनजी से चलाना अनिवार्य बनाने के अलावा औद्योगिक इकाइयों को शहर से बाहर करने का फैसला किया जाता है, दूसरी ओर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की इजाजत दी जाती है। दुनिया में ऐसे अनेक महानगर हैं जहां विकास और पर्यावरण का संतुलन देखा जा सकता है। दिल्ली और हमारे दूसरे महानगरों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता!
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