Wednesday, 27 March 2013 12:16 |
जनसत्ता 27 मार्च, 2013: निजी स्कूलों में मनमाने तरीके से फीस बढ़ोतरी को लेकर लंबे समय से आपत्ति जताई जाती रही है।
अब दिल्ली उच्च न्यायालय की ओर से गठित समिति ने भी इस एतराज पर अपनी मुहर लगा दी है। इससे निजी स्कूलों के प्रबंधकों को कुछ सबक लेने की जरूरत है। गौरतलब है कि अभिभावक समूहों ने अतार्किक फीस-वृद्धि के खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय में गुहार लगाई। न्यायालय ने आदेश दिया कि कोई भी स्कूल मनचाहे ढंग से फीस में बढ़ोतरी नहीं कर सकता। दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय ने भी स्कूलों को चेतावनी दी थी। मगर स्कूलों के रवैए में कोई अंतर नहीं आया। फिर अभिभावक संघ ने दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील की तो इस मामले में जांच के लिए न्यायमूर्ति अनिलदेव सिंह की अगुआई में एक समिति गठित की गई। समिति ने दिल्ली उच्च न्यायालय को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ज्यादातर निजी स्कूलों ने नाजायज तरीके से शुल्कों में बढ़ोतरी की है। ऐसा कोई कानून नहीं है कि स्कूल हर साल फीस में दस फीसद बढ़ोतरी कर सकते हैं। कायदे से किसी भी शुल्क में बढ़ोतरी या कमी का निर्णय जरूरत के मुताबिक ही किया जा सकता है। इसलिए स्कूलों को फीस में बढ़ोतरी करके वसूली गई रकम नौ फीसद ब्याज दर से अभिभावकों को लौटा देनी चाहिए। समिति ने यह भी सुझाव दिया है कि अभिभावक तब तक इस शिक्षा सत्र की फीस न जमा कराएं जब तक नया आदेश पारित नहीं होता। लेकिन समिति की ये सिफारिशें स्कूलों के प्रबंधक आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे। जब भी उच्च न्यायालय ने फीस बढ़ोतरी को लेकर निजी स्कूलों
के खिलाफ कोई कड़ा फैसला सुनाया, प्रबंधकों ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। इस मामले में सरकार भी उनके विरुद्ध कोई कड़ा कदम नहीं उठा पाई है। सरकार निजी स्कूलों को इस घोषित मकसद के साथ बढ़ावा देना शुरू किया कि वे बुनियादी शिक्षा की जरूरतें पूरी करने में मदद करेंगे। मगर जल्दी ही इन स्कूलों ने व्यवसाय का रूप ले लिया। अब इस क्षेत्र में बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भी कदम रख दिया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि पढ़ाई-लिखाई और व्यक्तित्व विकास आदि के बेहतर संसाधनों, परीक्षा परिणाम आदि का दावा करके अभिभावकों को रिझाने की होड़ शुरू हो गई है। स्कूल का चयन हैसियत प्रदर्शित करने से जुड़ गया है। लोगों की इसी कमजोरी का लाभ उठा कर ज्यादातर निजी स्कूल ज्यादा से ज्यादा पैसा बनाने में लगे रहते हैं। शिक्षा विभाग किसी स्कूल से यह नहीं पूछता कि व्यक्तित्व विकास या फिर सहायक पाठ्यचर्या के नाम पर गैर-जरूरी सुविधाओं के प्रदर्शन का क्या औचित्य है? ज्यादातर स्कूल इन्हीं सुविधाओं के नाम पर फीस में बढ़ोतरी करते हैं। काफी जद्दोजहद के बाद इन स्कूलों ने गरीब बच्चों के लिए पचीस फीसद सीटें आरक्षित करना शुरू किया है। मगर उनका तर्क है कि इस तरह उन्हें काफी नुकसान उठाना पड़ता है; इस कमी की भरपाई वे सामान्य तरीके से दाखिला पाए बच्चों की फीस में बढ़ोतरी से करना चाहते हैं। उनके इस दबाव के आगे सरकार बार-बार असहाय दिखी। आखिरकार न्यायालय के हस्तक्षेप से ही फीस की टीस से राहत मिलने की उम्मीद जगी है।
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